"आप तो अंदर हैं, बाहर कौन है ?"

 

सन 2009-10 की बात है। उस समय तक इन्टरनेट तक हमारी पहुँच बहुत सीमित थी। बीस रुपये प्रति घंटे की दर से इन्टरनेट कैफे में ऑर्कुट पर एकाउंट बनवा कर इन्टरनेशनल हो जाने का अपना सुख था। गूगल और यूट्यूब कानों के लिए परिचित शब्द जैसा लगने लगा था। फेसबुक के बारे में सुना तो हंसी आई थीऔर उसके साथ करना क्या हैनहीं पता था। उस वक्त बीएचयू के एक सीनियर दोस्त बड़े शायरों की कुछ सीडियाँ रखे हुये थे। शायरी के प्रति उस दोस्त की दीवानगी मुझे आज भी बहुत गुदगुदा जाती है। उस समय के नामचीन शायरों को सुनकर पता नहीं क्या हो जाता था।

एक शाम खबर मिली कि बीएचयू के स्वतन्त्रता भवन में एक बड़ा कार्यक्रम है। कुमार विश्वास और राहत इंदौरी आ रहे हैं। कुमार का तो नहीं पता लेकिन राहत साहब को जब लाइव देखा और सुना तो यकीन कर पाना मुश्किल था। आज भी कानों में आवाज़ की वही कशिश घुली हुई है जब उन्होने शुरू किया...

उसकी कत्थई आँखों में है जंतर-मंतर सब....,

चाकू-वाकूछुरियाँउरियाँखंज़रवंज़र सब....

उसके बाद ऐसा जादू चढ़ा कि राहत साहब के सैकड़ों शेर ज़बानी याद हो गए। हम सब उनके अंदाजे-बयां को कॉपी करने की नाकाम कोशिश करते। दूसरी बार जब बनारस के मैदागिन में आल इंडिया मुशायरे में वे रात के ढाई बजे मंच पर तशरीफ ले आए तो हजारों की भीड़ और पिन ड्रॉप साइलेंस। वे कोई शेर कहते और मैं भीड़ में कहीं पीछे दुबका हुआ उसका अगला शेर इतनी अहतियात से पढ़ देताकि अगल-बगल में कुछ हैरान रहते और कुछ परेशान। अजीब दीवानगी थी। 

उनके शेर सुनाने के ज़बरदस्त मिजाज़ और तेवर को कॉपी करते हुये मैंने उन दिनों एक गजल लिखी जो मेरे करीबी साथियों ने खूब पसंद किया था-

मेरे सवाल मुकम्मल जवाब मांगेंगे

कि तुझसे मेरी वफ़ा का हिसाब मागेंगे

वो वक्त बीत गया जब कि मांगते थे किताब

हमारे बच्चे अब हमसे शराब मांगेंगे

ये क्या हुआ भभक के बुझ गए दिये की तरह

इसी उमीद पे कल आफताब मागेंगे ?

करेंगे चर्चा कुपोषण की ताज होटल में

मीटिंग से उठके फिर शाही कबाब मागेंगे।"

शब्दों की कॉपी एक बार आप कर सकते हैंया करने की कोशिश कर सकते हैंलेकिन वो मिजाज़ और वह तेवर कहाँ से लाएँगे। और मेरे खयाल से लाना भी नहीं चाहिए। मैंने इतने खुलूस के साथ राहत साहब के अलावे किसी और को यह कहते नहीं सुना कि मियाँ ! ये दाद की भीख मांगना छोड़ो। अच्छे शेर कहो। और हाँ ! देखोशाइरी ऐसे सुनाई जाती है।

बनारस में ही चौकाघाट के एक सेमिनार हॉल में प्रेमचंद जयंती के अवसर पर बहुत निजी टाइप का कार्यक्रम आयोजित था। वो पहला वक्त था जब अपने बेहद अजीज़ और महबूब शायर को न सिर्फ बहुत करीब से देखाबल्कि हाथ भी मिलाया और थोड़ी देर बगलगीर होने का मौका भी मिला। मुझे याद है उस प्रोग्राम में शायरी का मज़ाक बनाने वालोंएक-एक फालतू शेर के लिए तवज्जो और दाद की भीख मांगने वालों को उन्होने खूब डाँटा था। खासकर प्रेमचंद जैसे अदब की इतनी महान सख्शियत की योमे-पैदाइश के दिन। दो तीन गज़लों के चुनिन्दा शेर सुनाने के बाद उन्होने श्रोताओं के मिजाज को परखने के लिए बोला भारत-पाकिस्तान पर कुछ सुनाऊँ क्या ?” एक शोर सा उठा कि हाँ” और वे चुपचाप जाकर अपनी जगह पर बैठ गए। उन्हें गजल और शेरो-शायरी के शौकीनों का सस्ता राष्ट्रवादी हो जाना कतई मंजूर न था।

दिल्ली में भी एक दो दफ़ा उन्हें सुनने का मौका मिला। दिल्ली की व्यस्तताओं में कई बार तो इसलिए उनके प्रोग्राम में शरीक होने का लालच छोडना पड़ा कि एक राहत को सुनने के लिए दसियों ‘फजीहत’ को भी सुनना होगा। अबतक यूट्यूब और शेरो-शायरी की किताबों के जरिये हम राहत साहब को अकेले में ज़्यादा महसूस कर पाने की काबिलियत हासिल कर चुके थे।

राहत साहब के किस्से हम न जाने कितनी बार आपस में सुने-सुनाया करते थे। खासकर वो वाला किस्साजिसे राहत इंदौरी बड़ी लज़्ज़त के साथ कहते कि पिछले तीस चालीस बरसों से गजल पढ़ते और पढ़ाते एक बात मैं अपने तजुर्बे से बड़े यकीन के साथ कह सकता हूँ कि अच्छी गजल कहने और सुनने के लिए आदमी का थोड़ा बदचलन होना ज़ुरूरी है।” ये किस्सा राही मासूम रज़ा के इस किस्से से कितना मिलता जुलता है जब रज़ा साहब किसी नए और बिलकुल गंभीर किस्म के शायर को मशवरा देते हुये कहते हैं कि यार तुम बहुत अच्छेबहुत ईमानदार इंसान हो। तुम एक अच्छे रिसर्चर हो। तुम एक अच्छे शौहर होअच्छे बाप हो…. अच्छे पड़ोसी होअच्छे दोस्त हो.... तुम इतने अच्छे हो कि उतना अच्छा आदमी अच्छी गजल कह ही नहीं सकता।

उन्होने हमारी ज़बान को इतनी तराश बख़्शी कि उनके जाने का अफसोस मनाने का कोई मतलब नहीं। शेरो-शायरी और खासकर अंदाजे-बयां की जो विरासत वे छोडकर गए हैंमातमपुर्सी की जगह उसका जश्न मानना ज़्यादा मुनासिब होगा। अफसोस रह गया सिर्फ इस बात का कि कुछ ही महीनों पहले बिलासपुर में उनका आना हुआ लेकिन मेरा जाना नहीं हुआ। वह एक सफर की थकान थी जिसने मुझे वहाँ जाने की इजाज़त नहीं दी। मेरा एक साथी उन्हें पहली दफ़ा सुनकर आया। उसने राहत साहब से अपनी पहली मुलाक़ात का जो किस्सा बयान कियावह हूबहू मेरा ही किस्सा था। बस एक बात अलग थी। जब मैंने उन्हें पहली बार देखा-सुना था तो आवाज़ के साथ उनके बदन का तेवर भी निराला था। इन दिनों आवाज़ में वही कशिश थी लेकिन पैरों ने व्हील चेयर से यारी कर ली थी।

बहरहालसबको जाना होता हैतो राहत साहब को भी जाना था। चले गए। अब उनके दीदार नहीं होंगे। मैं यह तो नहीं कहूँगा कि ‘ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिए आ।लेकिन जब कभी मौका मिला तो उनकी कब्र पर जाऊंगा और एक बात बहुत अधिकार के साथ ज़रूर पूछूंगा-

राहत साहब !

आप तो अंदर हैंबाहर कौन है ?”

Post a Comment

0 Comments