इस बीच ऐसा क्या हो
गया कि उसका किसी काम में मन ही नहीं लगता। देर तक बनिए की तरह किसी कागज़ पर कुछ
कामों की लिस्ट बनाता, मिटाता, फिर सबकुछ झटक कर आँखों में चुभते टेबल लैम्प को
बुझाता और कम्बल ओढ़ लेता। क्या किताबों ने उसके अंदर से सबकुछ खुरचकर बाहर निकाल
दिया है ? क्या संगीत की स्वरलिपियों, आलापों, तानों और मुरकियों ने दिमाग की अंतड़ियों
से सारा कुछ निचोड़ लिया है ? क्या कोई भी ऐसी वजह नहीं जिसके लिए जीने का एक लम्बा
टाइम टेबल बनाया जा सके ?
वह एक तिनका तलाश
रहा था ताकि खुद को अथाह समुंदर में डूबने से बचा सके।
उसने बहुत दिनों तक
अपने नाम के आगे आई.ए.एस. लिख कर काट दिया था, ताकि कोई मज़ाक न उडाये। बहुत दिनों बाद उसे
महसूस हुआ कि उसकी यह हरकत उत्तर भारत की एक सामूहिक मूर्खता का हिस्सा भर थी। उसी
तरह उसने कई साल सड़कों पर जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाये। जब उसका गला दुखने
लगा और बैंक एकाउंट ख़ाली हुआ, तो एक नेता ने निजी लम्हे में बहुत बेहूदगी से बताया
कि व्यवस्था पैसे और प्रभुत्व वालों की रखैल है और हम सब चूतिया। हम सिर्फ उसके
बारे में सोच कर हस्तमैथुन करते हैं और ख़ुश हो लेते हैं।
उल्टी होने से पहले
वह भागा।
उसने यात्रायें
करने, पत्रकार बनने, फोटोग्राफ़र बनने के मंसूबे पाले और कुछ नहीं किया।
गुज़ारा करने लायक
पैसे पर एक कॉलेज में पढ़ाते हुए पैसे की कमी को उसने मुद्रा व्यवस्था के इतिहास और
सुख-दुःख के सिद्धांतों के आधार पर अप्रासंगिक घोषित किया। ढेर सारी भौतिक
सुख-सुविधाओं से लदे-फंदे जीवन को बजबजाता हुआ डस्टबिन कहते हुए उसने साहित्य और
संगीत का दामन थामा। साहित्य ने बातों का वज़न बढ़ाना और संगीत ने सुरों को साधना
शुरू किया। दोनों के किनारे जितने रोमांचक, फेनिल और छिछले थे, अंदर उतनी ही गहराई
और निःस्तब्धता। इतनी कि वह किनारे ही रहने लगा। अब उसे हर गहरी चीज़ से डर लगता।
उसे बचपन में नहर में डूबने से बचने की कोशिश में हाथ-पैर मारने का वह दृश्य याद
आता और काँप जाता।
परेशान होकर वह कुछ
पढ़ता, फिल्म देखता और गाने सुनता। पढ़ने, फिल्म देखने और गाने सुनने के बाद वह और
परेशान हो जाता। वह लोगों से पूछता कि लोग आजकल क्या कर रहे हैं। लोग कहते कि वे
कुछ नहीं कर रहे हैं। वह गौर करता कि लोग कुछ नहीं कर रहे हैं फिर भी खुश हैं। वह
लोगों के कुछ न करने और खुश होने से परेशान हो जाता।
एक दिन किसी आदमी ने
उसे बताया कि वह दुखी है क्योंकि वह ज़्यादा सोचता है। अगर खुश रहना है तो जीवन को
इतनी गंभीरता से लेने से बचना होगा। अच्छा ? तो क्या सारी समस्या की जड़ मेरा सोचना
ही है ?
कुछ दिनों से वह
सोचने से बच रहा है। वह इस बारे में सोच रहा है कि सोचने से कैसे बचा जाए। उसकी
ऑंखें निस्तेज और चेहरा पीला पड़ता जा रहा है।
लोग कह रहे हैं अब
वह पहले से सुखी है।
0 Comments