एक सुन्दर अफ़साना माँ चिड़िया , बादल , तितली , बारिश एक सुन्दर अफ़साना माँ नींद में बिस्तर , प्यास में पानी , भूख में दाना-दाना माँ सपनों की बुनियाद के तले , घर में गड़ा खज़ाना माँ खिड़की , आँगन , छत , दीवारें , छप्पर , ताना-बाना माँ मैं जब नन्हा था तो कैसा दिखता था , क्या करता था चलनी , सूप किनारे रख आ बैठ ज़रा बतिया ना माँ कान पकड़ स्कूल ले गयी सर्दी , बारिश या गर्मी तुम क्यों इतनी निष्ठुर थी तब अब मैंने ये जाना माँ बाबूजी की चिट्ठी पढ़कर तुम इतना …
आज लिक्खूं या चाहे कल लिख दूँ सोचता हूँ कि मुसलसल लिख दूँ रात भर जागता रहा हूँ मैं क्यूँ न ऐसा करूँ ग़ज़ल लिख दूँ उदास बैठा है इक खानाबदोश उसके सपनों में एक महल लिख दूँ यूँ करूँ जिंदगी के पन्नों पर हर कठिन की जगह सरल लिख दूँ ठूँठ पेड़ों को हरा फल लिख दूँ उड़ रही रेत को दलदल लिख दूँ झील में खून के निशान मिले हुक्म आया है मैं कमल लिख दूँ क्यों न इन रहबरों की बस्ती को लखनऊ , दिल्ली को जंगल लिख दूँ इमारतों को करके ने…
कुछ टूटता रहता है हमेशा मेरे अंदर उठने लगा है दर्द ज़रा सा मेरे अंदर पल-पल मैं समंदर में अपने डूब रहा हूँ बैठा है कोई सदियों से प्यासा मेरे अंदर मेरा वजूद दर्द से घुट-घुट के मर गया करते रहे हकीम तमाशा मेरे अंदर मुद्दत हुए मैखाने का रस्ता नहीं देखा फिर होश में भी क्यूँ है नशा - सा मेरे अंदर मुझको नहीं मालूम है मैं हूँ या नहीं हूँ तुमने भी मुझे कितना तलाशा मेरे अंदर ये फन मुझे कुछ और भी करने नहीं देता अल्लाह ने क्यों इसको तराशा मेरे अंदर
जो मेरे दिल में था अबतक अधूरी दास्ताँ बनकर अचानक छा गया मुझपर वो सारा आसमाँ बनकर ये कल की बात है परहेज़ था मुझको मोहब्बत से मगर अब तो वही बहती है नस-नस में नशा बनकर पिघलकर चाँद-तारे आ गए मेरी निगाहों में वो आये और अँधेरा उड़ गया जैसे धुआँ बनकर हम उसके नाम से रुसवा हुए तो नामवर भी हैं वो हर एक दर्द के मौसम में आया है दवा बनकर भटक जाऊं तो दिखलाना मुझे रस्ता हकीकत का हमारे साथ तुम रहना हमेशा आईना बनकर
मैं बेवजह रातों को जगता हूँ रातों से खोदता हूँ जीवन की परतें सोचता हूँ सो जाऊं , फिर सोचता हूँ एक दिन सोना ही तो है , हमेशा के लिए सोने से जागना अच्छा फिर मुकम्मल नींद गवां कर भी क्या पाता हूँ थोड़ी सी देह की अकडन , थोड़ी सी पथराई आँखें , चाय के दो-चार खाली कप और चंद सिगरेटों के जले टुकड़े यही मेरी सूनी रात के हासिल हैं मुझे पता है कि इतनी आसानी से नहीं खुलतीं जीवन की गिरहें इतनी आसानी से नहीं सुलझती उलझनें फिर भी कोशिश करने में क्या हर्ज है …
कभी बंद होती , कभी खुल जाती हैं खिड़कियाँ जिधर देखो उधर नज़र आती है खिड़कियाँ मुहल्ले की आँखें और घरों की हैं साँसे कितनी बड़ी जिम्मेदारी निभाती है खिड़कियाँ नीद की आगोश में होता है जब सारा शहर कभी ध्यान से सुनना बतियाती हैं खिड़कियाँ इंसानों के दुःख , दर्द और बेपनाह खुशियों को इंसानों से पहले पहचान जाती हैं खिड़कियाँ नन्ही-मुन्नी परियों को स्कूल जाते देखकर पुलकती , किलकती , खिलखिलाती हैं खिड़कियाँ गलियों में , चौराहों पर जब भूखा सोता है कोई छुप-…
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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