ये जो सहराओं में भी गुल खिले हैं मेरी मासूमियत के हौसले हैं ये दुश्वारी मुझे रोकेगी कितना है ज़िद चलने की फिर क्या आबले हैं बहुत कुछ मेरी झोली में है देखो इरादे हैं , सफ़र है , मंजिले हैं चलो चलकर नयी दुनिया बसायें तसव्वुर , कारवाँ है , काफिले हैं फलक पसरा है पेशानी के ऊपर ज़मीं भी अपने पावों के तले है वहाँ घर मत बनाओ , मान जाओ परिंदों के वहाँ पर घोंसले हैं सियासतदाँ के वादे , माशाल्लाह हज़ारों हैं , मगर सब खोखले हैं पहाड़ों की तरह दिखते हैं जो भी ज़रा सा छू के देखो , पिलपिले हैं …
आनी दुनियाँ , जानी दुनियाँ कितनी है यह फ़ानी दुनिया कभी तो अपनी लगती है फिर लगती है बेगानी दुनियाँ बाहर कितना बड़ा शहर , और भीतर से वीरानी दुनियाँ साँच कहो तो आँच लगे , बस झूठ कहे पतियानी दुनियाँ हम वैसे के वैसे रह गए दिन-दिन हुई सयानी दुनियाँ रिश्तों के अम्बार लगें जब अम्मा , दादी , नानी दुनियाँ सबकुछ कितना टूट गया है गज़ब की खींचातानी दुनियाँ बचपन में लगती थी हमको दूध भात सी सानी दुनियाँ दिल का दरिय…
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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