अपनी कसी
हुई दुनिया में उलझे लोगों के पास बाहर झाँकने के झरोखे कम होते हैं। विज्ञान और
तकनीकी ने मनुष्य से जो एक वादा किया था कि वह मशीने बनाएगा और इन्सान को फुर्सत
होती जाएगी। अबतक जितने मशीने बनी, इस हिसाब से आदमी को फुरसत में हो जाना चाहिए था।
लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। आदमी व्यस्त से व्यस्ततम होता गया। सोचने-समझने की
जगहें लगातार सिकुड़ती गयीं। आजकल, अगर मज़ाक में कहें,
तो विद्वता की डिग्रियाँ भी फेसबुक और वाट्सएप से बाँटी जा रही हैं।
हालाँकि यह मजाक नहीं है, क्योंकि अंग्रेजी की एक मशहूर
कहावत है- ‘जोक इज़ अ सीरियस बिजनेस।’
मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि हमें
बहुत सारी चीजों के बारे में थोड़ा-थोड़ा जानना चाहिए और थोड़ी सी चीज़ों को बहुत
ज़्यादा। अब जबकि पढ़ना-पढ़ाना अगर आपका पेशा भी हो तो यह ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है।
आपके पेशे की संरचना यह मांग करती है कि साहित्य से संलग्न संस्कृति, धर्म, कला, दर्शन, के साथ आपको
विज्ञान, तकनीकी, इतिहास, भूगोल, समाज और अर्थव्यवस्था की बुनियादी जानकारी भी
होनी चाहिए। सवाल उठता है कि इस मांग को कैसे पूरा किया जाये! क्या साहित्य पढ़ने
वाले को इतनी फुरसत और धैर्य है कि वह अंतरानुशासनिक विषयों को उतनी गंभीरता से
समय दे सके ! अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि एक सामान्य व्यक्ति के लिए उतना
संभव नहीं है। लेकिन संकट यह भी है कि आपकी जानकारियाँ, आपकी
समझ और ज्ञान कहीं एकांगी बनकर न रह जाये।
सार्त्र ने अपनी एक कक्षा में
विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए कहा था कि हमारी ज़िन्दगी एक बंद कोठरी की तरह
है और हम अक्सर उसी में निबाह करने के लिए अभिशप्त होते हैं। ऐसे में फ़िल्में वह
एक झरोखे की तरह होती हैं जो बाहर की रोशनी की एक न्यूनाधिक मात्रा हम तक पहुंचाती
हैं। इस बात को इस तरह समझें कि अगर किसी की रूचि अर्थव्यवस्था के बारे में है तो
वह युद्धों और जंगलों के बारे में अध्ययन के लिए समय कैसे निकालेगा ? कला का विद्यार्थी
विज्ञान और तकनीकी की बुनियादी चीजों से कैसे परिचित होगा ? फ़िल्में
मनोरंजक माध्यम से इस कमी को पूरा करती हैं। एक समय था जब फ़िल्में देखना आवारगी की
पहली सीढ़ी मानी जाती थी। लेकिन अगर आज आप फ़िल्में नहीं देखते हैं तो दुनिया का
बहुत कुछ आपसे छूट जायेगा। ऑडियो-विजुवल माध्यम और उसका बिखराव अपने आपमें एक अलग
तरह की समस्या है लेकिन अगर आपमें अपनी प्राथमिकतायें तय करना और अच्छी चीजें
चुनने की काबिलियत है तो फ़िल्में कभी निराश नहीं करेंगी। डेढ़ से दो घंटे की
बेहतरीन फ़िल्में हमारी कल्पना शक्ति को बहुत सकारात्मक विस्तार देने की क्षमता
रखती हैं।
मुझे फिल्मों के सामानांतर ज्ञान और
संवेदना के विस्तार के लिए एक और चीज़ बहुत अच्छी लगती है- आत्मकथाएं और यात्रा
संस्मरण पढ़ना। आत्मकथाएँ जहाँ किसी व्यक्ति के निजी अनुभवों-एहसासों की परतें
खोलती हैं, यात्रा संस्मरण दुनिया को देखने और महसूस करने के आपके नज़रिए और
सौन्दर्यबोध को उद्घाटित करती हैं। लेकिन चुनाव का संकट यहाँ भी है। आत्मकथा या
यात्रा संस्मरण जब बहुत महीन, गंभीर और जटिल हो जाये तो वह
बोझिल और उबाऊ बन जाता है।
इन दिनों प्रोफ़ेसर अनिल राय के चीन प्रवास
के संस्मरणों की किताब पढ़ी। ‘माओ के देश में’। अनिल जी चीन के हार्वर्ड कहे जाने
वाले पीकिंग विश्वविद्यालय में (बीजिंग) में ढाई वर्षों तक विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे।
उनके चीन से लौटने के काफ़ी समय बाद यह पुस्तक प्रकाश में आई। हड़बड़ी का काम अच्छा
नहीं होता, यह हम सब जानते हैं। अनिल कुमार यादव का पूर्वोत्तर भारत पर यात्रा
वृत्तान्त ‘वह भी कोई देश है महाराज !’ पढ़ा था तो मुझे आश्चर्य हुआ था कि उन्होंने
अपनी यात्रा के बाद इस पुस्तक को अंतिम रूप देने में करीब दस साल का वक्त लिया था।
वह अपने आप में एक बेहतरीन और अनूठे किस्म का यात्रा वृत्तान्त है। प्रो। अनिल राय
अपनी किताब की भूमिका में ही अफ़सोस ज़ाहिर किया है कि कायदे से इस पुस्तक को आज से
चार-पांच साल पहले प्रकाशित हो जाना चाहिए था, किंतु दोष
मेरे आलस्य और व्यस्तताओं का है। उनका कहना अपनी जगह है, लेकिन
मैं रचना के मामले में जावेद अख्तर साहब की इस बात का मुरीद हूँ कि रचनाओं को
सुगंध आने तक पकने के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए। घटनाएँ, सूचनाएं,
एहसास और स्मृतियाँ इकट्ठी होकर समय की आँच में तपती-पिघलती हैं तो
कालांतर में उसका रूप पहले से नितांत अलग और अनोखा हो जाता है।
हम सबके अन्दर एक बच्चा होता है जो अपने
बालमन से चीजों को बड़े आश्चर्य और कौतूहल से देखता है। अगर आपको जिंदा रहना है तो
सिर्फ सांस लेना पर्याप्त नहीं है बल्कि इस बालमन को जीवित रखना भी है। अगर आपकी
आँखें फैलना और भौंहें सिकुड़ना भूल गयी हैं तो ज़रूर कुछ समस्या है। ऐसे मनुष्य को
उस भिन्डी की तरह ‘रूर’(प्रकारांतर से रूढ़) मान लिया जिसकी सब्ज़ी नहीं बन सकती। वह
मनुष्य आंखें तो रखता है लेकिन नज़र नहीं। वह बस इतना जीता है कि जीते हुए सिर्फ
मरने का इंतजार करता है। ऐसे लोगों के लिए ही शायद मशहूर शायर जॉन एलिया ने लिखा
है ‘बेदिली क्या यूँ ही दिन गुज़र जायेंगे ?, सिर्फ़ जिंदा रहे हम तो मर जायेंगे। या फिर अंसार
कंबरी का यह शेर ‘मौत के डर से नाहक परेशान हैं, आप जिंदा कहाँ
हैं कि मर जायेंगे।’ बहरहाल....
मुझे भारत के अतिरिक्त अन्य देशों की
संस्कृति और इतिहास के बारे में जानने का बड़ा मन होता था। अपने पाठ्यक्रम की पढ़ाई
से फुरसत पाकर जब पुस्तकालय में मैं अन्य अनुशासनों की किताबों का रुख करता था तो
अलमारियों में किताब ढूंढने के दौरान हाथ काले करने के बाद भी ऐसी ही किताबें हाथ
लगतीं जिन्हें पढ़ना किसी जंग जीतने के सामान मुश्किल काम होता। अव्वल तो ज़्यादातर
किताबें अंग्रेजी में होतीं, दूसरे दुरूह भाषा और ऐतिहासिक दस्तावेजों के सन्दर्भ
से भरी हुई। हाथ काले करने से अनिल जी की यह बात याद आई कि कई बार जब विद्यार्थी
मुझसे पूछते कि अमुक किताब आपको कैसे मिली ! जब मैं उनको बतलाता हूँ कि किताबों को
ढूंढने के लिए हाथ काले करने पड़ते हैं तो मुस्कुराकर रह जाते हैं।
कुल मिलाकर दूसरी दुनिया के बारे में
जानने समझने की यह ख्वाहिश अधूरी रहती। फिल्मों के अतिरिक्त यह कमी अक्सर इतिहास
और भूगोल की किताबों से पूरी होती रही। राहुल सांकृत्यायन पर शोध करते हुए, उनके यात्रा वृत्तांतों
और पांच भागों में उनकी आत्मकथा से गुजरते हुए मेरे बालमन को दुनिया की सैर करने
का पर्याप्त अवसर मिला। संयोग से यह शोध कार्य प्रो। अनिल राय के निर्देशन में ही
दिल्ली विश्वविद्यालय से संपन्न हुआ। अब आत्मकथाओं और यात्रा संस्मरणों के अथाह
समुद्र में से अपने काम की चीजें चुनने की थोड़ी बहुत समझदारी भी हासिल हो गयी।
गाहे-बगाहे विश्व साहित्य और उसके हिंदी अनुवाद से भी वृहत्तर दुनिया को पढने-समझने
का मौका मिला।
प्रो. अनिल राय की किताब की सबसे खास बात
जो मुझे आकर्षित करती है वह है इसकी बातचीत की भाषा और शैली की सहजता। बहुत कम
किताबों की किस्मत में यह लिखा होता है कि पाठक उसे एक बार हाथ में ले और बिना
रुके पढ़ता चला जाये। ऐसा लगता है कि लेखक लिख नहीं, कह रहा है। यह कहा जाना
भी एकतरफा संवाद नहीं है, बल्कि ऐसा महसूस होता है कि आप सुनने-कहने की उस पूरी प्रक्रिया में
सशरीर शामिल हैं। जैसे किसी बच्चे का हाथ, हाथ में थामें,
किसी बगीचे में टहलते आप उसके बालसुलभ मन को बहुत दिलचस्प तरीके से
दुनिया के किस्से सुना रहे हों। हमारे यहाँ, बल्कि पूरी
दुनिया में, बच्चों को कहानियाँ सुनाने की पुरानी रवायत रही
है। यह गूंगे का गुड़ है, और जिन लोगों को यह सुख हासिल हुआ
है, अपनी कल्पना के विस्तार और जीवन की रचनात्मकता में इन
क्षणों का महत्व वही समझ सकते हैं। आज अभिभावकों के पास न कहानियां सुनाने का वक्त
है, और अंकों के प्रतिशत और स्कूल बैग के बोझ से दबी आधुनिक
शिक्षा व्यवस्था न ही बच्चों को इस बात की इजाज़त देती है। होमवर्क और ट्यूशन से
बचा हुआ थोड़ा-बहुत वक्त मोबइल और टीवी की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे ‘सुपर स्मार्ट और
एक्स्ट्रा हाइजीनिक बच्चे’ जो बचपन के खिलंदड़पने और मिट्टी की महक से वंचित रह
जायेंगे, वे रोबोट बनने की बजाय एक बेहतर मनुष्य बन सकेंगे
और राष्ट्र निर्माण में कोई महती भूमिका निभा सकेंगे, मुझे
इस बात पर पूरा सन्देह है।
किसी की यात्रा के बारे में आप सबसे पहले
और सबसे ज़्यादा क्या जानना चाहते हैं ? कोई अगर मुझसे पूछे तो मैं कहूँगा कि आप वहाँ कैसे गए
! रेलगाड़ी से कि हवाई जहाज से ? आपकी ठहरने की जगह कैसी और
कहाँ थी। वहाँ के लोग, यातायात के साधन, सड़कें, शहर की संरचना और विन्यास कैसा था ? आपने वहां क्या खाया और कहाँ घूमे ? लोग क्या
खाते-पीते हैं ? क्या-क्या देखा जो बहुत अद्भुत लगा ?
बातचीत करने में कितना मज़ा आया और कैसी दिक्कतें पेश आयीं ? मौसम किस तरह का था और यहाँ से कितना अलग था ? अगर
आप वहाँ न जाते, या आपके मस्तिष्क से उस यात्रा की स्मृतियाँ
डिलीट कर दी जाएँ तो आपको अपने जीवन में कितनी कमी महसूस होगी ? इत्यादि-इत्यादि। मुझे ऐसा लगता है कि किसी की विदेश यात्रा को लेकर मेरे
ही नहीं, बल्कि जिज्ञासु प्रवृत्ति के प्रत्येक मनुष्य के
बालमन की प्राथमिक उत्सुकताएँ इसी प्रकार की होती होंगी। यह किताब चीन के बारे में
इन सभी सवालों पर बात करने का पूरा अवकाश देती है। किसी भी देश के संस्कृति और
इतिहास के बारे में सभी जानना चाहते हैं और ज़ाहिर है कि इतिहास और संस्कृति को
जानने-समझने की यह पहली उड़ान होती है। और अगर बताने का तरीका ऐसा हो तो फिर क्या
कहने !
किसी भी समाज का वर्तमान स्वरूप उसकी पूरी
संरचना और इतिहास को उद्घाटित करता है। चीन की सड़कों पर टहलते हुए जब अनिल जी कहते
हैं कि इन दुकानों में स्त्रियाँ ही फल बेचने का काम करती हैं, हर जगह महिलायें ज्यादा
दिखती हैं चाहे वह कोई शॉपिंग मॉल हो अथवा फुटपाथ की दूकान, तो
मुझे अपनी पूर्वोत्तर भारत की यात्रा याद आ जाती है। मणिपुर के सब्जी और मछली
बाज़ारों में मैंने देखा कि औरतें सारा काम सम्हालती हैं, पुरुष
सिर्फ सहायक की भूमिका अदा करते हैं। कामकाज़ी होने की वजह से वहाँ औरतें साड़ी की
जगह स्कर्ट और कुर्तियाँ पहनती हैं। आश्चर्य कि मैंने अधिकतर छोटे बच्चों को माँ
या बहन की गोद की बजाय पीठ पर चिपके देखा क्योंकि श्रम में व्यस्त हाथों को फुरसत
नहीं, ऐसे में हाथों की ममतामयी ज़िम्मेदारी यह पीठ ही निभाती
है। चीन में स्त्रियों की स्थिति कैसी है आप अनिल जी की इस बात से बहुत सहजता से
जान सकते हैं कि चीन में लगभग 99 प्रतिशत बस कंडक्टर महिलायें हैं। ड्राइवर
ज़्यादातर पुरुष हैं लेकिन फिर भी कम से कम 20 प्रतिशत महिलायें भी उसमें शामिल हैं।
विवाहित लड़कियां अपने सास-ससुर के बजाय माता पिता के साथ रहना ज़्यादा पसंद करती
हैं। यही कारण है कि चीन के लोग लड़की संतान की ज्यादा अपेक्षा करते हैं। अनिल जी
यह भी कहते हैं कि चीन में मेट्रो में महिलाओं के लिए सीटें नहीं आरक्षित होती।
साथ ही यह बताना भी नहीं भूलते कि किसी बुज़ुर्ग, बच्चे या
फिर गर्भवती महिला के लिए लोग अपनी सीट छोड़ने में ज़रा भी देर नहीं लगाते।
एक और अच्छी बात यह भी है कि लेखक ने अपने
चीन प्रवास के संस्मरण में जितना विश्वविद्यालय के बारे में लिखा है, उससे कई गुना अधिक चीन के
बाहरी समाज, वातावरण, बाज़ारों, सड़कों, यातायात और परिवहन के साधनों, और जंगलों-पहाड़ों पर लिखा है। मसलन, चीन के लोग एक
दूसरे की निजता का बहुत सम्मान करते हैं। वहाँ कोई भी सामान बाज़ार में चिल्लाकर
नहीं बेचा जाता, जैसा हमारे यहाँ होता है। वहां के नेताओं
में हमारे यहाँ की तरह की सामंती ठसक नहीं है। आम जनता में जब टैक्सी लेती है तो
मालिक की तरह पीछे बैठने की बजाय ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठने में ज्यादा
सम्मान महसूस करती है। बुजुर्गों का बहुत सम्मान है। हर उम्र के लोग पढ़ते-लिखते
हैं, इसकी सबसे बड़ी बानगी यह है कि वहाँ पेइचिंग शहर में ही
दो-तीन पुस्तकों के बड़े मॉल हैं। हमारे यहाँ दिल्ली जैसे शहर में पुस्तक मेला और
कुछ बड़े प्रकाशकों को छोड़ दिया जाए तो किताबों और पढ़ने-पढ़ाने के प्रति एक तरह
उदासीनता देखने को मिलती है।
हम सब आज भी अपने देश को महान साबित करने
की कसौटी किसी पड़ोसी मुल्क और किसी खास धर्म के प्रति नफ़रत से तय करते हैं।
राजनीति की तो बात ही क्या की जाये जो हमसे कई गुना पीछे औरएक मामूली पड़ोसी देश को
पानी-पीकर कोसती है, लेकिन भारत से चार हज़ार किलोमीटर की सीमा साझा करने
वाले चीन की आर्थिक और सांस्कृतिक तरक्की पर बात नहीं करना चाहती। बहरहाल
देसी-विदेशी के चक्कर में उलझे हम लोग किसी देश और संस्कृति को महान बनाने की
बुनियादी चीज़ों को ही नकार देते हैं। अनिल जी इस बात को लेकर भी बराबर आगाह करते
हैं कि अच्छी चीज़ें चाहे वह कहीं की भी हो, अपनाने में गुरेज़
नहीं करना चाहिए। मसलन बौद्ध धर्म भारत भूमि की उपज है लेकिन आज चीन सहित दक्षिण
एशिया के बहुत सारे देशों की सांस्कृतिक बुनियाद का सबसे मजबूत स्तम्भ है। लोग
बौद्ध धर्म पर गर्व करते हैं। चीन में उदारीकरण की प्रक्रिया भारत से बहुत पहले
शुरू हुई लेकिन क्या मज़ाल है कि चीन ने अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर कोई समझौता
किया हो ! आप चीन में मौजूद हैं और दुनिया की किसी भाषा में बोलें, जवाब आपको चीनी में ही मिलेगा। ज्ञान-विज्ञान की सारी शाखाएं देश की अपनी
भाषा में ही पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं। गर्व के साथ और बिना किसी अपराधबोध के। बावजूद
इसके कि सात-आठ दशक पहले सत्ता की आतंरिक कलह और राजनीतिक अस्थिरता के कारण चीन की
हालत अच्छी नहीं थी। और बावजूद इसके भी कि चीन में 56 जातियां हैं, उनकी लोकभाषाएं और बोलियाँ हैं, फिर भी चीन की एक
भाषा और एक लिपि है। आज चीन अपनी प्राकृतिक, भौतिक और मानवीय
सम्पदा को लेकर हमसे कई गुना अधिक होशियार है। आश्चर्यचकित होने के साथ उससे बहुत
कुछ सीखने की ज़रूरत भी है। चीन में प्रत्येक छात्र को मिलिट्री शिक्षा अनिवार्य है।
यह अपनी और देश की तंदुरुस्ती के प्रति चीन की जागरूकता को दर्शाता है। चीन के
बीजिंग विश्वविद्यालय में कुल अड़तीस हज़ार विद्यार्थी हैं लेकिन साइकिलों की संख्या
चालीस हज़ार है। यह विश्वविद्यालय दुनिया के पढ़ाई-लिखाई में अव्वल होने के साथ
पर्यटन का अच्छा-खासा केंद्र भी है, जिसमें हजारों की संख्या
में लोग घूमने आते हैं।
यह किताब अपने छोटे छोटे अध्यायों में चीन
की भाषा, संस्कृति और इतिहासको लेकर बहुत सरल और सहज तरीके से बात करती है।
काव्यशास्त्र में वर्णित अनुकरण सिद्धांत की माने तो अपनी आँखों से देखी हुई चीज़
भी वास्तविक नहीं होती क्योंकि यह दुनिया ही ईश्वर की कल्पना का आधा-अधूरा
प्रकटीकरण है। और फिर जब अपनी आखों से देखी हुई उस अधूरी दुनिया को स्मृतियों के
आधार पर हम दुबारा रचना चाहते हैं या किसी को बताना चाहते हैं तो वह सत्य से
दुगुनी दूर होता है। शास्त्र के तर्कों-वितर्कों से थोड़ा हटकर कहें तो एक लेखक की
सफलता वहीं साबित हो जाती है जब उसकी कही बात कहीं से भी बनावटी न लगे। एक कदम आगे
बढ़कर अगर लेखक का वर्णन बहुत बोधगम्य, सहज, मज़ेदार और दिलचस्प हो जाए तो वह ‘फिक्शन’ की परिधि को छू लेता है जहाँ
सत्यता-असत्यता की सारी कसौटियाँ बेमानी हो जाती हैं। अपने संस्मरणों में अनिल राय
कहीं भी कोई ऐसा खुरदुरापन नहीं छोड़ते कि ठहर कर थोड़ा आराम कर लिया जाए। आप एक बार
उस परिधि में उतरते हैं तो डूबते चले जाते हैं।
भूमंडलीकरण और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के इस दौर में अमेरिका और
यूरोपीय देशों से विज्ञान और तकनीकी सहित अच्छी-बुरी जिन चीजों की खेप हमें हासिल
हो रही है, वह बहुत सहज लगती सी दिखाई देती है। लेकिन चीन की बात करें तो ‘मेड इन
चाइना’ के अतिरिक्त बाकी बातों पर एक चुप्पी सी लगी रहती है। अनिल राय की यह किताब
उस चुप्पी से एक पर्दा उठा देती है, ताकि हम चीन के समाज और
संस्कृति में भी झाँक सकें, समझ सकें और सीख सकें।
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