मैं बेवजह रातों को जगता हूँ रातों से खोदता हूँ जीवन की परतें सोचता हूँ सो जाऊं , फिर सोचता हूँ एक दिन सोना ही तो है , हमेशा के लिए सोने से जागना अच्छा फिर मुकम्मल नींद गवां कर भी क्या पाता हूँ थोड़ी सी देह की अकडन , थोड़ी सी पथराई आँखें , चाय के दो-चार खाली कप और चंद सिगरेटों के जले टुकड़े यही मेरी सूनी रात के हासिल हैं मुझे पता है कि इतनी आसानी से नहीं खुलतीं जीवन की गिरहें इतनी आसानी से नहीं सुलझती उलझनें फिर भी कोशिश करने में क्या हर्ज है …
कभी बंद होती , कभी खुल जाती हैं खिड़कियाँ जिधर देखो उधर नज़र आती है खिड़कियाँ मुहल्ले की आँखें और घरों की हैं साँसे कितनी बड़ी जिम्मेदारी निभाती है खिड़कियाँ नीद की आगोश में होता है जब सारा शहर कभी ध्यान से सुनना बतियाती हैं खिड़कियाँ इंसानों के दुःख , दर्द और बेपनाह खुशियों को इंसानों से पहले पहचान जाती हैं खिड़कियाँ नन्ही-मुन्नी परियों को स्कूल जाते देखकर पुलकती , किलकती , खिलखिलाती हैं खिड़कियाँ गलियों में , चौराहों पर जब भूखा सोता है कोई छुप-…
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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