ये क्या कि अपने ही हाथों अपनी तमाम रातें अज़ाब कर लूँ

 


    ये क्या कि अपने ही हाथों अपनी, तमाम रातें अज़ाब कर लूँ

    कलम उठाऊँ, गजल लिखूँ और थोड़े कागज़ खराब कर लूँ

 

    मैं नींद बिस्तर से झाड़कर के, सजा के तकिये के नीचे रख दूँ

    और अपनी बोझिल उनींदा आँखें, मसल-मसल कर चराग कर लूँ

 

    अगर हक़ीक़त यही है तो फिर तिलिस्म क्या है, फरेब क्या है ?

    तो मैं भी पत्थर को पानी करके, उसे बदल कर शराब कर लूँ

 

    फरिश्ते आए हैं मुझको लेने, मगर ज़रा सा ठहरना होगा

    चलूँगा, चलना तो है ही, बैठो, सबर तो रक्खो हिसाब कर लूँ

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