गणित

 

गणित के टीचर ने क्लास में बहुत विस्मयकारी तरीके से शून्य में देखते हुए कहा था कल साल 2020 आ रहा है। जब साल 2000 आया था, मेरे लिए यह किसी जादू की तरह था। मैंने उसी के आस-पास इस स्कूल में पढ़ाना शुरू किया था। इकहत्तर की पैदाइश और नब्बे की जवानी के दिनों में हम बात करते थे कि एक दिन ऐसा आयेगा जिसे हम साल 2000 कहेंगे। उस रात घडी की सुई ने जैसे ही बारह की संख्या पार की, हमने एक नयी सदी में पैर रख दिया था। और उस बात को आज बीस साल हो गए। कितना कमाल लगता है सबकुछ !”

क्लास के सारे बच्चे मुंह बाए टीचर को देख रहे थे। ऐसा पहली दफा हुआ था जब टीचर ने अंकों, रेखाओं, गणित के उबाऊ शब्दों, सिद्धांतों और डांट-फटकार के अलावे भी कोई बात कही हो। बस किसी रोबोट की तरह आना, पढ़ाना, जाना। न हँसना, और न दूसरों को हँसने की छूट देना। टीचर की पूरी देह से किसी बासी चीज़ जैसी गंध आती थी। सबसे ज्यादा उसकी आँखों से। हालाँकि बात आज की भी समझ नहीं आई, जैसे पहले वाली नहीं आतीं थीं। लेकिन आज उसकी बात से, उसके कहे शब्दों से, उसके पुलकते शरीर और कंपकंपाते होंठों से कुछ और ही फिजा बरस रही थी।

“सर ! आज जैसे दो हज़ार आया है, क्या कभी साल तीन हज़ार भी आयेगा ?” स्तब्ध सन्नाटे के बीच से एक हिचकिचाहट भरा हाथ और स्वर दोनों उभरा। वह सोनू था। इस क्लास में ऐसा दुस्साहस दुर्लभ सी चीज़ थी।

एक दबी सी सामूहिक खिलखिलाहट।

टीचर शून्य से चेतना की तरफ मुड़ा। “हाँ बिलकुल ! साल तीन हज़ार आयेगा, फिर चार हज़ार, पाँच हज़ार, फिर दस हज़ार। जैसे जीरो से शुरू होकर यहाँ तक आया।”

“सर ! क्या जीरो से पहले भी कोई साल रहा होगा ?”

“हाँ, जीरो से बहुत-बहुत पहले भी बहुत सारे साल थे। और आगे भी बहुत सारे साल आएंगे।” कहते हुए अध्यापक की आँखों से आस-पास की ढेर सारी चीजें धुँधली सी होने लगीं। उसे ऐसा पहले कभी नहीं महसूस हुआ था। उसने अपने बचपन के दिनों को याद करने की कोशिश की। ढेर सारी रंग-बिरंगी तस्वीरें उभरने लगीं।

“पता है ! बचपन में मैं तुम लोगों जितना, बल्कि उससे बहुत ज्यादा शरारती हुआ करता था। सबकी पकड़ से बाहर।” उसे आश्चर्य हुआ कि आज के पहले उसने बच्चों से इस तरह की बातें कभी नहीं की। इसके पहले वह क्लास के बच्चों को डाँटते या बाहर की दुनिया पर खीझते पाया गया था।

आज उसने बच्चों को अपने बचपन की कुछ मज़ेदार कहानियाँ सुनाई। उन कहानियों में हवा थी, धूप थी, तितलियाँ थीं, बारिश थी, ऊख और अरहर के लहलहाते खेत थे, ऊसर-बंजर, नदियाँ तालाब और नहरें थीं। उनमें थोड़ा सा रेडियो, थोड़ा टेलीविजन, थोड़ी शादियाँ, थोड़ी बरातें, थोड़ी सोहर-कजरी, थोड़ी गलियाँ, थोड़ी प्रेमकथाएं और बहुत सारे खेल थे।

बच्चों को समय का पता ही नहीं चला। क्लास से बाहर निकलते हुए टीचर की आँखों के किनारे सितारों की तरह झिलमिला रहे थे।

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