चितकबरी

 


बूढा-बूढ़ी तीर्थयात्रा से लौटे थे। घर पहुँचते ही तय हो गया कि पूरे इलाके को भोज खिलाएंगे। फिर क्या था ! तैयारियां शुरू हुई और वह दिन करीब आ गया। चौबीस घंटे के अखण्ड हरिकीर्तन के उपरांत प्रसाद बंटे। लजीज व्यंज्यन तैयार किये गए, लोगों ने जम के लुत्फ़ उठाया। पेट सहलाते हुए घर की तरफ रवाना होने ही वाले थे, कि पता चला नाच भी है। मशहूर नौटंकी मंडली आई थी। कुछ देर बाद हारमोनियम के साथ कुड़कुड़िया नगाड़े की जोरदार ध्वनि से इलाका गूँज उठा। गुलाबी जाड़े के उस मौसम में लोग बड़ी बेसब्री से उन लौंडों की लचकती कमर और बलखाती अदाओं का इंतज़ार करने लगे, जो मंच के पीछे इच्छाधारियों की तरह अपना रूप बदलने में मगन थे।

पर इन सबमें चितवन कहाँ था ? चितवन वहीं था लेकिन उसकी निगाहें उस सांवली सलोनी लड़की को ढूँढ रही थी जो थोड़ी देर पहले चितवन यानि चित्तू को चितकबरा कहते हुए और उसपर फूल फेंक कर शर्माते हुए भाग गयी थी। जैसे घोर अँधेरे में बिजली चमक गयी हो। सर्द रात में हुआ यह रंगीन हादसा चित्तू में सौ-सौ अलावों की गर्मी पैदा कर रहा था। वह लोगों के बीच में होता हुआ भी नहीं था और उसकी नज़रें कल्पनाओं में बहुत दूर-दूर तक गश्त लगा रही थीं।

चित्तू मौसियाने में था। उत्सवप्रिय प्राणी होने के नाते ऐसे अवसरों पर वह दो दिन पहले बतौर मेहमान कम मेजबान आमंत्रित होता था। अपने आस-पास के लोगों को हर काम में बहुत मनोरंजक तरीके से शामिल किये रहता। काम का काम हो जाता, लोगों का वक्त भी आसानी से कटता। शादियों, जन्मदिनों, यहाँ तक कि मृत्युभोजों में भी उसका बुलावा दो-एक दिन पहले होता। लोग उसकी तारीफें करते, गाँव के लौंडों को उसकी मिसालें देते, और वह फूला न समाता। इस झोंक में खूब जी-जान लगाकर काम करता। कई बार औकात से बाहर जाकर काम कर जाता और बीमार पड़ जाता। चित्तू इस मामले में प्रसिद्धि के उच्च शिखर की तरफ तेजी से अग्रसर था और इसी रास्ते में एक चितकबरी आ गयी।

चितकबरी नाम उसे चित्तू ने दिया था। असली नाम तो उसका गुंजन यानि गुंजा था। खदेरू काका की बिटिया। घर थोड़ा दक्खिन की तरफ हटकर। जब गोबर की लिपाई से दुआरे महमहाने लगे, सारी भाभियाँ और चाचियाँ एक दूसरे से चुहल करने लगीं, ठीक उसी वक्त गुंजा आई और इस चुहल का शिकार हो गई। किसी ने मिट्टी से सना गोबर ऊँगली से उसके गालों पर उबटन की तरह लगा दिया। एक भाभी ने चुटकी ली। अरे ननद जी, इहाँ एतना नंदोई लोग जमल बाटें, अउर तूँ आपन जवानी घरे में बर्बाद करत हऊ ? आवा ! काम-धाम में तनी हाथ बँटावा। नंदोई लोगन के आँख भी हरियर होई अउर अपने खातिर दू-एक ठे सेट भी कर लिहा। भितरियाँ छुपले से काम न चली ! बचबू ना ! हमहू लोगन के कुछ मौका दे दा कुछ गन्दी-गन्दी बात करे के ! तोहरे भर रहलीं हमनी के त एकदम बवाल रहलीं। कौनो खेत-खरिहान ना छुटल। कुल चौमास चरि गईलीं।

हँसी का एक फौव्वारा छूटा, और गुंजा पूरी तरह भीग गयी। कुछ न सूझा तो बक्क भउजीकहते हुए भाग गयी। चित्तू बंदनवार बनाने में व्यस्त कनखियों से उसे देख रहा था। बीसवें बरस की मादकता पूरी लय के साथ बह रही थी। नहा के आई थी, किसी सस्ते साबुन की महँगी सी महक पूरी देह पर तन्मयता से लिपटी हुई थी। गीले बालों को सूखने में अभी ज़रा देर थी। दुपट्टे को शॉल की शक्ल में ओढ़े, फूट पड़ने वाली सुन्दरता को छुपाने की असफल कोशिश करती गुंजा चली तो गयी लेकिन पूरे माहौल पर एक चटकीला रंग चढ़ा गयी।

शाम ढली तो मौसम थोड़ा और सर्द हुआ। चाय की चुस्कियों के बीच लोगों के कहकहे जारी थे। चित्तू चाय बहुत बढ़िया बनाता था, ऐसा खदेरू काका पिछले ही साल मोहर लगा दिए थे। तो चित्तू की बनायी हुई चाय के कसीदे पढ़े जा रहे थे। किसी ने फरमाया “एतना बढियाँ चाह त दुकनियो में ना मिले।” मुनिया नाक पोछते कह रही थी “पांच रुपया से एक्को पईसा कम के ना मिली।” गंगा में गोते लगा आये बुढऊ इस वक्त मगन होकर चाय के लोटे में गोते लगा रहे थे। गुंजा आई तो भउजी ने चिकोटी ली हरे गुंजी ! दिनवा में तो बड़ा सरमा के भाग गईल रहलू। आवा चाह पी ला।

नहीं भउजी मैं चाय नहीं पीती। गुंजा शर्माते हुए कह रही थी।

हैं ? अरे पाप लगी, अईसन ना बोले के। जे हमरे देवर के हाथे क चाह ना पी, ऊ पछताई। हम बतावत हईं कि पी ला, जवानी सुफल हो जाई।

चित्तू सब सुन के अनसुना कर रहा था।

आप और आपके देवर, दोनों मोटा जाइए चाय पी के।  हमको नहीं मोटाना।

हरे पी के त देखा ! खिल जईबू। एक काम करत हईं, तोहार बियाह करवा देत हईं चित्तू से। फिर रोज भोरे-भोरे मस्त चाह बनाय के पिलईहें। एकदम आनंद में रहबू।

आप भी क्या करती हैं ! कुछ नहीं देखती, जो मुंह में आया बक दिया। कुछ लाज सरम है कि सब.... ?”

अच्छा रुका त !

जब रोटी बननी शुरू हो जाय, बता दीजियेगा।और इतना कहकर मुस्कुराते हुए पीछे की गली की तरफ मुड़ गयी। मुड़ते हुए उसकी नज़रें एक पल के लिए चित्तू से टकरा गयीं। चित्तू था कि आँखों से ढिठाई पर उतर आया था।

ढेर सारे प्रपंचों के बीच हरिकीर्तन शुरू हो चुका था। बरामदे में ढोल, ताशे के साथ गाने वाले चार-छः लोगों की मंडली जमी हुई थी। अब यह तमाशा अनवरत चौबीस घंटों तक जारी रहेगा। कल भात-भोज के साथ इसका अवसान होगा। नारियल, बताशे, और गमगामाती अगरबत्तियों के बीच माइक के रस्ते दूर तक जाती सुरीली और बेसुरी आवाज़ों का घालमेल माहौल को भक्तिमय बना रहा था। चित्तू के लिए यह सब मनोरंजन की चीज़ थी। रात गहराने के साथ खाने-खिलाने का दौर शुरू हुआ।

सबके खा लेने के बाद घर के आंगन में औरतों की पाँत बैठी। चित्तू भाभियों का दुलारा था इसलिए औरतों को खाना खिलाने की ज़िम्मेदारी उसे ही सौंपी गयी। यह उसकी चंचलता का पुरस्कार था। दिन भर हाड़तोड़ परिश्रम के बीच भी औरतें मुस्कुराती और चमकती रहती हैं। तमाम दमन और कुंठाओं के बीचों-बीच अपनी उत्सवधर्मिता को संजोये वे मनोरंजन के कितने नायाब तरीके ढूँढ लेती हैं। बचे हुए खाने को अमृत की तरह कूंचती-चबाती उन औरतों के प्रति चित्तू के मन में अगाध श्रद्धा उमड़ती आती। और जब पाँत में एक खूबसूरत, सलोनी लड़की भी बैठी हो तो खाना परोसने का आनंद चौगुना क्यों न हो जाय !

अरे खा हो रानी मोरी ! तूँ त सरमात अइसे हऊ जईसे लइका बाले देखै आयल हउवन। चांप के खईबू की ! कमजोर रहबू त आपन दुलहा से जोरा-जोरी कईसे करबू ? डाला हो देवर जी। तोहरे काहें मने-मन रसगुल्ला फूटत बा ? पेट भ खियइबा तब्बे न ढंग से आसिरबाद दीहैं हमार ननद।

“भउजी ! हम उठके चले जायेंगे, बता रहे हैं ! गुंजा एकदम से लजा गयी थी।

चित्तू को गुंजा पर तरस आ गया। हे भउजी ! रहे दा ! काहें परेसान करत हउ ? तसल्ली से खाए दा न ! अउर आप चिंता न करा। हम एनके पेट भर खिला के ही भेजब।

ओय होय ! खियावा-खियावा, खाली पेट मत रखिहा कब्भौं।हंसी की एक और फुहार।

शर्माने का सिलसिला बदस्तूर जारी था। गुंजा के मना करने के बावजूद दो कुरकुरी इमिरती चित्तू ने थाली में डाल दिया। उसकी ना-नुकर के बावजूद पूरी तन्मयता से परोसता और खिलाता जा रहा था। थोड़ी देर बाद यह सिलसिला भी ख़त्म हो गया।

रात गहरा आई थी। बरामदे में हरिकीर्तन के शोर के बीच दुवारे पर जल रहा अलाव एक अलग ही दृश्य पैदा कर रहा था। ढेर सारी राख के बीचो-बीच जलती हुई सूखी लकड़ियों की रोशनी ठेकुए की सुगंध जैसी लग रही थी। बीच-बीच में किसी की फूँक से लकड़ियों की चिटचिटाहट के साथ निकलती मद्धिम रोशनी में गुंजा का चेहरा किसी गुलाब के फूल सा दमक जाता। कुल गिने चुने चार-पांच लोग उसके इर्द-गिर्द बैठे अपने-अपने गम ग़लत करने में मशगूल थे। कोई पिछले साल ठाकुर साहब की माता जी की भव्य तेरही के भोज की तारीफ करता तो कोई रमेसर तिवारी की लड़की की शादी की भव्यता पर रीझता। चित्तू अभी तक इमिरती में ही सींझा हुआ था। खदेरू काका, बसेरन, जैराम, नाथू, इन सबके बावजूद चित्तू की किस्सागोई का जवाब नहीं था। गाँव से लेकर शहर तक के जलसों, होने वाली घटनाओं का ऐसा महल बुनता तो लगता कि इस बाईस बरस के लौंडे जितनी दुनिया किसी ने देखी ही न हो। इस वक्त वहाँ का कोलंबस भी वही था, और वास्कोडिगामा भी। बीच-बीच में हाथ सेंकती गुंजा की मुस्कराहट और धीमी हंसी से और उत्साह चढ़ता और चित्तू समंदर के उफनते फेन में किसी नाव पर सवार एक बार फिर से दुनिया घूम आता। बुजुर्गों और जवानों की भीड़ के बीचों-बीच जवान होती दो कलियों का परिचय प्रगाढ़ हो रहा था।

तब हो बाबू ! बहुत दिन बाद अइला अबकी बारी ! कहाँ रहला एतना दिन ?” खदेरू काका ने बात उठाई।

बनारस में काका ! वही पढ़ाई-लिखाई। पटवारी क इम्तिहान देवे के बा। अब कहाँ टाइम मिलै ओतना !

अरे तब्बो भी ! पढ़ाई लिखाई त ठीके बा, पटवारी भी बन जईबा लाला। मेहनत कभौं बेकार ना जाले।  फल मिलेला। बकी नात-रिस्तेदारी ना छूटे के चाही। आवत जात रहे के चाही। हौ की ना ?” काका राख में आग ढूँढते बोले।

सहिये कहला काका ! एह बारी हमहूँ के कुछ-कुछ अईसने बुझात हौ। इहाँ त एतना अच्छा लगत बा कि मन करे महीना दू महीना रुक जाई !

महीना नहीं साल भे रुका बचवा ! तोहार आपन घर हौ समझा।

हाँ काका, बात त ठीक बा। बाकी बकिया लोग सब आपै जईसन सोचें तब न !

गहराती रात के उस अलाव में एक लकड़ी और डाली गयी। उसकी रौशनी में गुंजा का मुस्कुराता हुआ चेहरा साफ़ नज़र आ रहा था।

दूसरी सुबह कोलाहल बढ़ गया था। बूढा-बूढ़ी के परलोक सुधारने वालों की तादाद बढती जा रही थी। साथ ही बढती जा रही थी चित्तू की बनाई हुई चाय की डिमांड। रसोई में एक लौ पर चाय पक रही थी तो दूसरी पर हसरतें। बीच बीच में गुंजा नज़र आ जाती तो चाय का स्वाद बढ़ जाता। आँगन से गुजर रही थी कि मन टटोलने के इरादे से चित्तू ने आवाज़ लगाईं।

सुनिए !

हिरनी जैसी दो आँखें चिहुँक उठी।

कौन मैं ?”

हाँ आप !

बताइये !

थोड़ा हमारी मदद कर दीजिये।

कौन मैं ?”

हाँ हो ! आप ही से तो बोल रहे हैं ! बहुत भयंकर बिजी हैं क्या ?

नहीं, ऐसी बात नहीं है।  लेकिन मैं क्या करुँगी? मुझे तो आप जितनी अच्छी चाय बनानी भी नहीं आती।

तो आइये सिखा देता हूँ। पैसा भी नहीं लूँगा।

अपनी भौजी लोग को सिखाइए ! बहुत तरफदारी करती हैं आपकी।

“अच्छा वहाँ कोठरी में इमिरती पड़ी है, दो लेकर आइये। बहुत भूख लगी है।”

गुंजा खुश भी थी, और हैरान भी। करे तो क्या करे ! इमिरती ले कर आई और एक गिलास पानी भी। चित्तू मुस्कुराया तो पकती हुई चाय में अदरक इलायची के साथ और भी कोई खुशबू घुल गयी।

फिर उस ख़ामोशी की काई को थोडा सरकाते हुए चित्तू बोला भउजी बता रही थीं कि आपके पास बहुत सुन्दर सी फुलवारी है। फुलवारी हमको बहुत पसंद है। हमको भी दिखाइएगा ?”

“भउजी बहुत दुष्ट हैं। चुगली करती रहती हैं। भगोने में चम्मच घुमाते गुंजा ने कहा।

“होंगी दुष्ट ! आपके लिए, हमारे लिए तो देबी हैं। कितनी मदद करती हैं हमारी !”

एक लम्बी ख़ामोशी ने चित्तू के कहे में कुछ अर्थ भरा। चम्मच घुमाते गुंजा मुस्कुराई। चित्तू ने हिम्मत करके गुंजा का हाथ पकड़ना चाहा, फिर न जाने क्या सोचकर हाथ से छू भर दिया। किसी ने आवाज़ दी तो गुंजा बाहर जाने लगी। चित्तू ने आवाज़ दी। सुनो ! मेरे लिए कुछ फूल ले आना ! गुंजा एक पल को ठहरी, फिर “बक्क” कहते हुए भागी थी। चित्तू मुँह बाए देखता रहा। खुश इतना था कि मन करे चाय के भगोने में सिर डाल दे।

कभी-कभी दिन बहुत लम्बा होता है, और शामें अपने ढलने के लिए खूब जी भर इंतज़ार करवाती हैं।

हरिकीर्तन समाप्त हुआ। प्रसाद बाँटा गया। गुंजा ने सबसे नज़रें बचाकर अपने हिस्से का थोड़ा प्रसाद चित्तू के हाथों में रख दिया। चित्तू खाया नहीं, भकोस गया। 

आखिरकार शाम ढल गयी थी। खाने वालों की पाँत बगुलों की तरह बैठती और उड़ जाती।  समंदर की लहरों के शोर जैसा नज़ारा था। लेकिन उस रात के शोर-शराबे में चित्तू को सिर्फ गुंजा और गुंजा को सिर्फ चित्तू सुनाई दे रहा था। थोड़ी देर की बेतरतीबी के बाद माहौल शांत हो गया, और अलाव फिर चमक उठे। एक नहीं कई-कई। उन अलावों की रौशनी में चित्तू उसी को ढूँढने की कोशिश करता। न जाने कहाँ गुम हो गयी थी। अचानक से ठीक पीछे उसके होने का एहसास हुआ। चित्तू ने बिना मुड़े वो सब सुना जो गुंजा ने बिना कहे कहा था।

दूसरे ही पल एक अँधेरी गली में दोनों बिलकुल आमने सामने खड़े थे। बिलकुल उस अँधेरे की तरह ही निःशब्द और किमकर्तव्यविमूढ़। गुंजा के मुँह से हिचकिचाहट भरा एक शब्द फूटा। फूल ले आई थी।” फिर उसने दो गुलाब और कुछ बेले के फूलों से भरी अंजुरी आगे बढ़ा दिया। चित्तू ने हाथ बढाकर अंजुरी थाम ली और उसे अपने चेहरे के करीब लाकर सूंघने लगा। थोड़ी देर बाद वक्त के वहीँ ठहर जाने की दुवाएं करते थोड़ी हिम्मत बांधी और आगे बढ़कर गुंजा के होंठों को चूम लिया। हाथों में रखे गुलाब और बेले फीके पड़ गए। दोनों के माथे और हथेलियों में पसीने चुहचुहा आये। चित्तू को जबतक कुछ समझ आता, वह उसके ऊपर फूलों को फेंकती हुई भाग गयी थी। साथ में बोल गयी “चितकबरा”

उसके पैरों की आहट दूर तक सुनाई देती रही। गली में थे सिर्फ चित्तू और अँधेरा।  

चित्तू ने कहा “हम चितकबरा औ तूँ हमार चितकबरी।”

नाच शुरू हो चुकी थी। पुआल बिछे खेत के बीचोबीच ट्यूबलाईट की झिलमिलाती मद्धिम रोशनी से नहाये मंच पर नाच का शुरूआती दौर चल रहा था। सधे हुए बाजों-बजैयों की ताल पर तख्तों पर थिरकते नचनियों के पैरों की आवाज़ किसी प्रेतबाधा को दूर करने के करतब जैसी लग रही थी। जोकर और नर्तक के बीच अश्लील सवाल-जवाब वाले संवादों पर लोग दांत चियार कर हँस रहे थे। कोई बीड़ी पी रहा था तो कोई खैनी फांक रहा था। बच्चों की आँखों में सौ-सौ मन की नींदे तैरने लगीं थीं। बुजुर्गों की गोद में बैठे वे नींद को हराने की जुगत में लगे थे। अपने जीवन के शुरूआती लम्हों के इस कौतूहल को ये लोग बताशे की तरह घोल कर पी जाना चाहते थे। कल को अपने संघतियों से बहस में जीतना भी तो था कि मैं सबसे देर तक जागा, फलाने तो बहुती जल्दी सो गया था।

मंच के ठीक सामने लेकिन बहुत दूर छुटभैये दोस्तों के साथ छत की रेलिंग पर बैठा चित्तू, इन सारी गतिविधियों को देखता हुआ भी लगातार उसी खुशबू में लिपटा हुआ था, जो थोड़ी देर पहले छूकर गुज़र गयी थी। इस वक्त गुंजा की गैरमौजूदगी चित्तू के लिए ऐसी ही थी जैसे रेंड़ाए धान के खेत में दरारें। निगाहें दूर-दूर तक जाकर लौट आती थीं, और वह थी कि दिखाई ही नहीं दे रही। अचानक नज़र उस जगह ठहर गयी जहाँ बगल की सटी हुई छत पर कई लड़कियों और औरतों के बीच गुंजा बैठी थी। सबसे नज़रें बचाकर चित्तू की तरफ एकटक घूरती दो आँखें।

‘आहि दादा !’ चित्तू ने दिल पर हाथ रखकर उछलती हुई धडकनों को सम्हाला। जोर से सांस ली और गर्दन झुकाकर जी भर खुश हो लिया। चित्तू दुबारा थोड़ा संयत हुआ और गुंजा की तरफ देखने लगा। उसने होंठों ही होंठों में ढिठाई से कहा ‘चितकबरी।’ गुंजा ने कहा ‘चितकबरा।’

चित्तू को दिन जितना लम्बा लगा था, रात उतनी ही छोटी थी। वह चाहता था कि रात कभी ख़त्म न हो। सारी दुनिया सामने स्टेज की तरफ देखे और दोनों एक दूसरे को। थोड़ी ही दूरी पर बैठे दोनों ढीठ निगाहों से एक दूसरे को पी रहे थे। लेकिन रात थी कि रेत की तरह मुट्ठी से लगातार फिसलती रही। उनके बीच की यह थोड़ी सी दूरी पहाड़ जितना ऊँची और सख्त थी। मंच के सामने उंघते बैठे लोग, नाच-बाजे और जनरेटर का शोर, झिलमिलाती रोशनी, शामियाने के ऊपर फैला आसमान, मोती की तरह बिखरे सितारे, सबकुछ किसी सपने जैसा लग रहा था। अगर कुछ सच था तो सिर्फ चितकबरा और चितकबरी।  

बर्तनों की खटपट से चित्तू की नींद खुली तो दिन चढ़ आया था। अपने पीछे कल के जलसे के मलबों का ढेर छोड़ बहुतेरे लोग जा चुके थे। खटिया छोड़ने से पहले चित्तू ने जी भर यकीन कर लिया कि कल जो हुआ वह सच ही था। उसने हाथों से चहरे को ढँक कर फूलों की ख़ुशबू को महसूस किया। अपने ही हाथों में चिकोटी काटी, तब माना। मुनिया चाय का कप लिए खड़ी थी। चित्तू ने मुनिया को अपने पास बिठा, उसके सिर पर हाथ फेरा और चाय सुड़कते हुए रात की बातें सोचने लगा।

नलके पर भात का जरौंठा भगोना पूरी ताकत से घिसते हुए खदेरू काका बोले “चित्तू बाबू ! सुनल जाला कि बनारस में कउनो बहुत जबर मिठाई मिलेले ? खईले हवा ?”

“कौन सी जबर मिठाई ? लौंगलता ?”

“हाँ... हाँ उहे ! नाथू काल बतावत रहलैं कि पूरा मुँह भरि जाला। इहौ कहत रहलैं कि आदमी लगातार दू ठो खाय ले त चक्कर आइ जाय। हमके त बुझाला नथुआ सनक गयल बा।”

“काका बात त सही हौ। नाथू काका सनकल ना हौवें। मिठाई मजेदार बा। लेकिन चक्कर आवे न आवे, दूठे केहू खाय ना सकेला।”

“हैं..., सच्चों? एतना बड़ा ?” खदेरू काका की आँखें फैलकर कटोरी हो गयीं।

गुंजा बाल्टी का पानी लेकर उधर से गुजरी। भोर के उगते सूरज की तरह सुनहली। नजर बचा कर एक छटाँक पानी मुनिया के बहाने खटिया पर बैठे चित्तू की तरफ उछाल दिया। चित्तू ने चिहुँक कर देखा तो झूम गया। गुंजा को सुनाते हुए बोला “काका, इस बार आयेंगे बनारस से तो लौंगलता ले आएंगे। बिलकुल रस भरा। और अपने हाथ से खिलाएंगे।” गुंजा का मन गुलगुले सा खिल उठा।

चित्तू इस गाँव में और भी बार आया था। लेकिन इस बार यहाँ से जाते हुए, उसका मन फफक पड़ा। सभी ने जी भर आशीर्वाद दिया। उसके जल्दी से पटवारी बन जाने की प्रार्थना की। चित्तू चला तो मुड़कर नहीं देखा। गुंजा रोने-रोने को थी, नजर बचाकर अपने घर भाग गयी। ‘वह कितना ढीठ समझती थी चित्तू को, लेकिन कितना अच्छा है वह। सब जान छिड़कते हैं उसपर। नाहक उसको चितकबरा भी बना दिए। पानी भी फेंक दिए उसके ऊपर। शहर में रहता है। वहां ऐसी बकलोली करता होगा भला कोई ? क्या पता, मन में कोई गाँठ लेकर गया हो। क्या पता कब लौटे। लौटे भी या नहीं। उस दिन फूल भी फेंक दिए उसपर। और कुछ नहीं दे सकी तो जाते बखत कम से कम दो चार फूल ही दे दिया होता उसे।’

“दीदी... दीदी। गुंजा दीदी !” गुंजा अफ़सोस के सागर में गोते लगा रही थी कि सात बरस की मुनिया सीधे कमरे में घुस आई।

“क्या है रे ! क्यों चिल्ला रही है ?”

“ई ला। चित्तू भईया देके गयल हवें। हमसे कहनै कि जब केहू ना देखे तब गुंजा के दे दिहा। अउर पता हौ? कहत रहनै कि हमरे बदे बनारस से जहाज ले अयिहैं। एकदम असली बाला !” मुनिया पूरी देह से किलकते हुए भाग गयी।

चिट्ठी हाथ में पकड़े गुंजा का दिल धक्क से कर गया। बिलकुल उसी तरह जब चित्तू ने रात के अँधेरे में उसे चूम लिया था। एक बार चिट्ठी को खोला, फिर घबराकर बंद कर दिया। “हाय राम ! क्या लिखा होगा इसमें ? कहीं नराज तो नहीं हो गया ? जो बात मुंह से नहीं कह सका, चिठ्ठी में लिख गया हो !” थोड़ा संयत होने के बाद गुंजा ने इधर उधर देखा और दरवाजा बंद करके चिट्ठी पढने लगी।

“मेरी प्यारी चितकबरी !

मैं दो साल पहले भी आया था। उस टाइम तुम छोटी थीं, अब बड़ी हो गयी हो। पता नहीं याद है कि नहीं। इस बार हमने फिर से तुमको देखा। अब तुम बहुत सुन्दर हो गयी हो। लोग यहाँ हमको बहुत मानते हैं, इसलिए हमने कसम खाई थी कि हम कोई ऐसा वैसा काम नहीं करेंगे जिसमें इज्जत की बदनामी हो। फिर जब तुमको हमने पहले दिन देखा तो दिल में न जाने क्या हो गया। हमारी कसम टूट कर चकनाचूर हो गयी। फिर हमने तुमसे जल्दी जल्दी में बात भी कर ली। और उस दिन चुम्मा भी ले लिए। घबराहट में हमसे गलत-सलत काम हो जाता है। हम कोसिस किये कि खाली फूल ले कर चले जायेंगे। लेकिन तुम इतना सट गयी थी। थोड़ी गल्ती तुम्हारी भी होती है। बाद में हम बहुत पश्ताये।

लेकिन बिगाड़े को कौन बना सकता है ? जो हो गया, हमारे-तुम्हारे कहे से बदल नहीं सकता। तुमने जो फूल फेंके थे, हम उठा लिए थे और अपने साथ ले के जा रहे हैं। तुम्हारे चोरी हम तुम्हारी फुलवारी भी देख आये। कितना अच्छा बनाया है तुमने। तुम्हारी सादी में तो माली को फूल भी नहीं लाना पड़ेगा।

तो हम कह रहे थे कि तुम हमको इतनी अच्छी और सुन्दर लगी कि हम नहीं बता सकते। वो हम ही जानते हैं। वहां से आने के बिलकुल मन नहीं था। अच्छा हुआ कि मेरे जाते तुम वहाँ नहीं थी, नहीं मैं रो ही देता। मैं बहुत रोंदू आदमी हूँ। मेरी माई कहती हैं कि मैं बचपन में औरतों की तरह गिथाना कर-करके रोया करता था। मेरी नाक भी बहती थी। सुफेद फ्रॉक पहने तुम्हारी फोटू भी देखी है मैंने। उसमें तुम्हारी भी नाक बह रही है। सुरु-सुरु में सबकी नाक बहती है। नाक से याद आया, मुनिया को बता देना हम उसके साथ धोखा किये हैं। उसको बोल के आये हैं कि चिट्ठी पहुँचाने के बदले सचमुच वाला जहाज लायेंगे उसके लिए। हम खुदे नहीं देखे, तो उसके लिए कहाँ से लायेंगे। और ला भी दिए तो चला थोड़ी न पायेगी। आठ बरस की होने वाली है और पाँच का पहाडा भूल जाती है पागल।

तुमने उस दिन हमको चितकबरा बोल दिया। हमको बहुत अच्छा लगा। रस्ते में जायेंगे तो फूल सूंघते हुए जायेंगे। तुम किसी बात के लिए नाराज मत होना। नहीं होओगी न ? हमारी कसम खाओ ! हम उतने ढीठ नहीं हैं। बल्कि हम तो डरपोक हैं बहुत। तुमको देख के पता नहीं कैसे हम इतना गलत सलत भी बोल गए। ऐसे हम हैं ही नहीं। मानो चाहे मत मानो। और तुम्हारे मानने से क्या होगा ? हम हैं ही नहीं ऐसे, जैसा तुम समझती हो। उस दिन लौंगलता लाने को बोल दिए बनारस से। ऐसा नहीं है कि नहीं ला सकते। ला भी सकते हैं। और जरुर लायेंगे, लेकिन हाथ से नहीं खिला सकते क्योंकि सबलोग देखेंगे तो इज्जत की बदनामी हो जाएगी। और सोचो रात को खिला नहीं सकते, क्योंकि हमको दिखाई नहीं देगा तो तुम्हारे मुँह के अगल-बगल सब चोटा लग जायेगा। बाकी तुम्हारी मर्जी।

पन्ना ख़तम होने वाला है। सोचो हम कॉपी लेकर तो आये नहीं थे। भोज भात के समय कॉपी लेके आते तो तुम्ही सोचो कि लोग क्या कहते। और ये भी नहीं पता था कि चिट्ठी लिखनी पड़ जाएगी। दीपू के रफ से यह कह के लिए कि समान की लिस्ट बनानी है। एक बात कहना चाह रहे थे, तुम पता नहीं क्या सोचोगी।

आई लब यूं। हम फिर आएंगे, अगर तुम नराज नहीं होगी तो....

तुम्हारा चितकबरा।

 

चित्तू पूरे दो साल बाद लौटा। शाम ढले जब उसने गाँव की पगडण्डी पर कदम रखा, खदेरू काका ने दूर से ही पहचान लिया। लपककर चित्तू ने पाँव धर लिए।

“जियो ! सुखी रहो बचवा ! इतना दिन बाद याद आई हमारी ?” काका रुवांसे से हो गए।

“क्या बताएँ काका। काम ही में फंस कर रह गए। सहर की जिंदगी ही नरक है। लेकिन याद बहुत किये सबको। फिर काम भी फाइनल कर के लौटे हैं। पटवारी हो गए। ये देखो ! ढेर सारा लौंगलता ले के आये हैं।”

“भगवान दिन दूना रात चौगुना तरक्की दे बचवा। खूब फूला-फला ! माँ-बाप का बुढ़ापा सुफल करिहा !” काका की बातों में कोई उदासी भांय-भांय कर रही थी।

“क्या बात है काका ? सब ठीक तो है ?” चित्तू चलते-चलते रुक गया।

“नहीं ठीक है बचवा ! कुछ नहीं ठीक है ! जवान लड़की की लहास दफना के आये हैं परसों। कइसे ठीक रहेगा ! कुछ नहीं ठीक है।” और काका चित्तू को पकड़ कर बुरी तरह फफक पड़े।

“अरे ! क्या हुआ ? कैसे हुआ ? किसकी बात कर रहे हैं ?” चित्तू का दिल बैठता जा रहा था।

“हमार गुंजा गुजर गयी लाल ! परसों !” काका लड़खड़ा कर बैठ गए। चित्तू खड़ा रहा।

“केतना खियाल करत रहे हमार। जईसे बिटिया नहीं बेटवा हो। गोरु-बछरू सब सम्हालत रहे। सारा काम-धाम करे। जी जान लगाकर पढ़त-लिखत रहे। दिन भर कोयल जइसन कुहुँकत रहे। फुलवारी क पौधा में पानी देय त घंटन ओनही से बतियावे। सांझ के बनाय-खाय के बाद हम दूनों परानी क बारी-बारी से पैर दबावे औ गुनगुनात रहे। एक दिन पैर दबावत क बोल पड़ल ‘दादा हमार नाम गुंजा नहीं, चितकबरी है। फिर एक दिन जब उत्तर वाली दीवार गिरा के नई बरदौर बनावे क बात कहनी त भड़क गइल। ‘ख़बरदार, जो किसी ने हमारी फुलवारी को हाथ लगाया।’ बहुत समझाए बचवा, पर ना मानल। एक दिन ओकर अम्मा कहलिन कि फुलवारी कहीं अउर बनाय ला त चिहुँक-चिहुँक के रोवे लागल। ओह दिन से केहु के फुलवारी के पास फटके ना देय। एक मोथा तक ना उखाड़े देय। कभों-कभों फुलवारी के पास बइठल न जाने कहाँ देखत रहल करे। साल भर से न जाने कवना बियोग में एकदम सूखल जात रहल।”

चित्तू को चक्कर सा आने लगा तो धम्म से वहीं बैठ गया।

“परसों ओकर तबियत कुछ खराब रहे त साँझ ले फुलवारी के पास बैठल रहे। न जाने कहाँ से दुबक के एक गेहूँवन साँप घात लगाये बैठल रहे। बिटिया उठी तो भरभरा के गिर पड़ी लाल ! जब तक हस्पताल पहुँच पाईं, हमार लड़की के आँख टंग गइल। ओकर माई गुंजा-गुंजा कहत बेहाल हो गइल तो बोलल ‘हम बच जायेंगे अम्मा। चिंता मत करो। लेकिन हमार नाम गुंजा नहीं है, चितकबरी है।’ हम तो भागदौड़ में रोवल भी भूल गईली बचवा। मरते बखत एक आखिरी बार हमार बच्ची आँख खोली तो बोली “दादा ! हम ठीक हो जायेंगे। तुम फुलवारी मत उजारना।”

(समाप्त) 

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