कुछ टूटता रहता है हमेशा मेरे अंदर उठने लगा है दर्द ज़रा सा मेरे अंदर पल-पल मैं समंदर में अपने डूब रहा हूँ बैठा है कोई सदियों से प्यासा मेरे अंदर मेरा वजूद दर्द से घुट-घुट के मर गया करते रहे हकीम तमाशा मेरे अंदर मुद्दत हुए मैखाने का रस्ता नहीं देखा फिर होश में भी क्यूँ है नशा - सा मेरे अंदर मुझको नहीं मालूम है मैं हूँ या नहीं हूँ तुमने भी मुझे कितना तलाशा मेरे अंदर ये फन मुझे कुछ और भी करने नहीं देता अल्लाह ने क्यों इसको तराशा मेरे अंदर
जो मेरे दिल में था अबतक अधूरी दास्ताँ बनकर अचानक छा गया मुझपर वो सारा आसमाँ बनकर ये कल की बात है परहेज़ था मुझको मोहब्बत से मगर अब तो वही बहती है नस-नस में नशा बनकर पिघलकर चाँद-तारे आ गए मेरी निगाहों में वो आये और अँधेरा उड़ गया जैसे धुआँ बनकर हम उसके नाम से रुसवा हुए तो नामवर भी हैं वो हर एक दर्द के मौसम में आया है दवा बनकर भटक जाऊं तो दिखलाना मुझे रस्ता हकीकत का हमारे साथ तुम रहना हमेशा आईना बनकर
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
Let's Get Connected:- Twitter | Facebook | Google Plus | Linkedin | Pinterest
Social Plugin