रात के गहरे सन्नाटे में
गली के खम्भों पर लटके
जुगनू थक कर ऊँघने लगते हैं
मेरे दुःख तब भी जगते हैं।
सौ-सौ मन की नींद लिए
तारों के बीच में सो जाती हैं
ठीक उसी पल ओस की बूंदों की
चमकीली,
मेरे दुःख चमका करते हैं।
जाने तो कैसा दिखता है !
जैसे कोई प्रेत हो लम्बी सांस खींचता
जैसे कोई भँवर हो सबकुछ लीलती जाती
जैसे कोई खाद का बोरा,
दुःख पानी सा घुल जाता है।
नमी भरे खेतों में जैसे अनचाहे मोथे उगते हैं
मेरे दुःख उगते रहते हैं।
दुःख कटहल के लासे जैसा
पूरी देह चिपट जाता है
जम जाता है मन में जैसे शहर का धुआं
जैसे बरसों ढँका पड़ा हो गाँव का कुआँ
जैसे शोर की ख़ामोशी में राग नए जन्मा करते हैं
मेरे दुःख गाते रहते हैं।
कहते हैं कुछ सूख गया है
कहती है तकलीफ बहुत है
चलने में किरचें उठती हैं,
फरहर देह की फरहर यादें,
मह-मह करती हैं
मेरे दुःख महका करते हैं।
अपने ही बच्चों के हाथों छला गया हो
जैसे कोई बूढ़ा सर्दी की रातों में
धीरे-धीरे आती मौत की बाट जोहता
मेरा दुःख पगडण्डी जैसा
चलता हूँ, बिछता जाता है
सबपर चौराहे मिलते हैं
दुःख हमराही से लगते हैं।
0 Comments