प्रमेय (उपन्यास) : अध्यात्म सृजन है, विज्ञान शोध है और धर्म नियम है।


 

प्रमेय (उपन्यास) : अध्यात्म सृजन है, विज्ञान शोध है और धर्म नियम है।

लेखक : भगवंत अनमोल


कहा जाता है ब्रह्मसत्यम जगतमिथ्या। साथ ही यह भी कहा जाता है कि संसार माया है। विज्ञान की भाषा में कहें तो यह मैट्रिक्स है। संसार के लिए सपना, तिलिस्म, जादू, ईश्वर की छाया, कल्पना, फिक्सन, फैंटेसी, एक क्षणिक बुलबुला, एक बड़ा गर्भ इत्यादि शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। ये सारी कल्पनाएं, अवधारणाएँ सही भी हैं और ग़लत भी। यह तो विरोधाभास है और आखिर दो विरोधी चीज़ें एक साथ सही और ग़लत कैसे हो सकती हैं ? ऐसा इसलिए होता है कि हमारा मन जो भी सोचता है, उसकी एक सीमा होती है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हम अपनी सीमाओं में सोचते हैं, उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं। कहा भी जाता है कि आप उतना ही जानते हैं, जितना आप जानते हैं। मनुष्य के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि वह दुनिया का सबसे बुद्धिमान प्राणी नहीं, सबसे मूर्ख और ढीठ प्राणी है। वह अपने आपको महान ईश्वर की सर्वाधिक सुंदर कृति के दावे रूप में प्रस्तुत करता है लेकिन वह है सबसे अनुपयोगी, या इस ग्रह के लिए सबसे अधिक विनाशकारी जीव।

मनुष्य इस ब्रह्मांड के लिए एक वायरस है। बादलों के पेशाब से धरती की गीली सतह पर उग आई एक फंफूंद भर। कभी ऊपर से देखा जाये तो यह सिर में रेंगते जुओं की तरह प्रतीत होगा जैसे खलिहान में चरती हुई भैंस के बालों बीच छोटे छोटे परीजीवी कीड़े-मकोड़े। मनुष्य की बस्तियाँ स्वस्थ धरती की चमड़ी पर दाद खाज और खुजली की तरह उगी हुई हैं। इस धरती की धूल, धुआँ और गंदगी ही इस खुजली की खुरचन है। प्लास्टिक, मलमूत्र, और अन्य कचरों से इस एकमात्र जीवित ग्रह को बर्बाद करता एक वायरस। हास्यास्पद है कि एक वायरस फिलहाल एक दूसरे वायरस के आने से डरा हुआ है।

जैसे ब्रह्मांड में हर गैलेक्सी, उसके अंदर के तारे, ग्रह, उपग्रह इत्यादि एक नियम से बंधे हुये हैं। उसी तरह राजनीति और समाज की गैलेक्सी में हम भी एक नियत जगह पर बंधे हुये हैं। हम अपनी जगह से टस से मस नहीं हो सकते। एक अपरिपक्व मन सतही और निरर्थक परिकल्पनाएं रचता है कि हम यह बदल देंगे, यह उलट- पुलट देंगे।  हमारा कुछ सोचना भी इसी तिलिस्म, इसी मैट्रिक्स का हिस्सा है। इसके बाहर कुछ नहीं है। हम पेड़ की सैकड़ों शाखाओं में लगे हजारों लाखों पत्तों में से एक हैं। हमारी एक समूहिक चेतना है, जिससे हम बंधे हुये हैं। जैसे पत्ते पेड़ से किसी नियम और नियति के तहत बंधे होते हैं। इस समूहिक चेतना से व्यक्तिगत चेतना को अलगाया नहीं जा सकता। बस थोड़ा ठहर कर, थोड़ी कोशिश करके, आँख खोलकर देखा और महसूस किया जा सकता है। इतने भर से ही हम अपने अस्तित्व को महसूस कर सकते हैं। हम किसी नियम को बदल नहीं सकते, बल्कि उसे समझ सकते हैं। समझना ही पर्याप्त है।

मनुष्य अपने आपको जितना भी महान, सृजनात्मक और मालिक मुख्तार समझता है लेकिन सच यह है कि उसका होना किसी ब्रह्मांडीय परियोजना का हिस्सा नहीं है। सारे मूल्य, परम्पराएँ, अधिकार, इतिहास, संस्कृति और धर्म कहानियों तथा गप्पों के आधार पर रचे गए हैं। वह अपने ही मुँह मियां मिट्ठू है। वह जिस आईने में स्वयं को देखता है, वह भी उसका अपना रचा हुआ है। भगवंत अनमोल सही कहते हैं कि इस ब्रह्मांड का एक ही नियम है कि इसका कोई नियम नहीं है।

भगवंत अनमोल के उपन्यास प्रमेय सबसे पहला काम यह करता है कि वह ब्रह्मांड में आपकी जिज्ञासा जगाता है। अगर आप ऊपर कही गयी बातों से असहमत हैं और पारंपरिक दृष्टि से मनुष्य को कोई पवित्र और महान रचना मानते हैं तब आप उपन्यास की विषय वस्तु से एकमेव नहीं हो पाएंगे। आपकी सोच की सीमा, उसका संकुचन, उसकी छिछली परिधि ही सबसे पहली दीवार बनकर खड़ी हो जाएगी। किसी देवता या ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करने से उपजा भय, किसी नियम, कानून या धर्म परंपरा में आपकी अडिग आस्था होने की वजह से आप इससे जुड़ ही नहीं पाएंगे। ऐसी स्थिति में यह उपन्यास आपकी सोच को, आपके संस्कार को चुनौती देता है।

भगवंत अनमोल ने उपन्यास का तानाबाना तीन तरह की सभ्यताओं का ज़िक्र करते हुये रचा है। टाइप-1 सभ्यता एक ऐसी अतिविकसित व्यवस्था है जहां के मनुष्य अपनी क्षमताओं और ब्रह्मांड की समस्त संभावनाओं का उपयोग करना सीख गया है। वह लगभग ईश्वर के बराबर पहुँच गया है। टाइप-2 सभ्यता हमारी अपनी सभ्यता है जो बीच में है। यह कुछ अध्यात्म, कुछ धर्म और कुछ विज्ञान का कॉकटेल है। इसने न अपनी और न ही ब्रह्मांड की संभावनाओं का उपयोग करना सीखा है। यहाँ जितनी मात्रा में आधुनिकता है, उतनी या उससे ज़रा अधिक मात्रा में सामाजिक, धार्मिक दक़ियानूसी भी है। टाइप-3 सभ्यता एकदम शुरुआती सभ्यता है जहां सिर्फ अध्यात्म, कुछ मात्रा में धर्म लेकिन विज्ञान का बिलकुल अभाव है। यह प्रारम्भिक अवस्था है। इन सबसे भी ऊपर एक व्यवस्था यह है कि जब मनुष्य को ब्रह्मांड या प्रकृति के बारे में जानने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता, तब वह इसी में अपने को विलीन कर ईश्वर हो जाता है। उपन्यास की कहानी इसी वर्तमान, अतीत और भविष्य कथा को लेकर बुनी गयी है। एक कहानी वर्तमान समाज के दो प्रेमी प्रेमिकाओं की है, दूसरी कहानी एक अतिविकासित अत्याधुनिक सभ्यता से अतिप्राचीन सभ्यता का संवाद है और उसका भी आधार प्रेम ही है।

कहानी का निष्कर्ष या निष्पत्ति उपन्यास के मुख्यपृष्ठ पर ही लिख दिया गया है। यह निष्कर्ष है कि अध्यात्म सृजन है, विज्ञान शोध है और धर्म नियम है। सारी कहानी प्रकारांतर से इसी सूत्र की रोचक और विस्तृत व्याख्या है। हम अपने आमफ़हम जीवन में देखते हैं कि धर्म और विज्ञान के बीच में एक झगड़ा चलता रहता है। यह झगड़ा है ही नहीं, बिलकुल जाहिलपना है। असली और रोचक झगड़ा अध्यात्म और विज्ञान के बीच है। विज्ञान दरअसल धरती पर प्राप्त पदार्थ, ऊर्जा और इनके आपसी सम्बन्धों का शोध है। विज्ञान की सारी खोजें धरती पर या ब्रह्मांड मे पहले से उपस्थित अवयवों के आधार पर उपस्थित शक्तियों को जानना और उनसे कुछ कुछ नियमों के आधार पर नयी चीज़ें पैदा करना। लेकिन इसमें भी जानना ही मुख्य है। गौरतलब है कि विज्ञान अपने आप में कोई पवित्र चीज़ नहीं है और न ही विज्ञान के नियम कोई सार्वभौमिक नियम हैं। हमारी अवस्थिति इस ब्रह्मांड में इतनी सूक्ष्म और नगण्य है कि सार्वभौमिकता का खयाल भी हमारी अपनी सोच की सीमा पर निर्भर करता है। जैसे पहले के ऋषि मुनि वसुधैव कुटुंबकम की बात करते थे लेकिन उनके लिए उनका कुटुंब धरती की किसी विशेष जगह पर मौजूद दो चार कबीलों के अतिरिक्त संभवतः कुछ नहीं था। उसी तरह हमारी सार्वभौमिकता मात्र एक ग्रह, एक सौरमंडल और उससे ज़रा अधिक की जानकारी पर आधारित है। जबकि दुनिया, या जिसे हम दुनिया कहते हैं, वह सिर्फ इतनी ही नहीं है।

लेखक ने अध्यात्म को एक नियामक शक्ति के रूप में स्वीकार किया है। विज्ञान उसका एक अनुगामी है, एक अस्त्र है जिसके माध्यम से हम अपनी भौतिक शक्तियों का भरपूर उपयोग कर सकते हैं। अध्यात्म और विज्ञान में एक समन्वय होना चाहिए। ये दोनों एक गाड़ी के दो पहिये हैं, एक सिक्के के दो पहलू हैं। अध्यात्म सृजन है। अध्यात्म वह तरीका है जिससे मनुष्य अपनी मौलिकता, अपने होने की वजह, अपनी अस्तित्वगत मौजूदगी को अनुभव करता है। अगर यह बोध नहीं है कि हम क्यों हैं, हम कौन हैं, तो विज्ञान हमारे लिए वरदान नहीं होकर अभिशाप बन जाएगा। विज्ञान एक क्षण में लाखों हत्याएं करने वाला परमाणु बम, एक गला चाक करने वाला चाकू, एक नदी को खोखला करने वाली जेसीबी, एक मिट्टी को बर्बाद करने और बेतहाशा प्रदूषण फैलाने वाली प्लास्टिक बनकर रह जाएगा। अध्यात्म वह दिशा है जिससे हम अपनी शक्तियों की स्टेयरिंग को सकारात्मक और सृजनात्मक कामों की तरफ मोड़ सकते हैं। जैसे हमारी सोच हमारे मन के भीतर है, वैसे ही ईश्वर भी हमारे भीतर है। हम बाहर से कोई प्रामाणिकता नहीं ढूंढ सकते। कम से कम अपने बनाए इस संसार और उसके कारोबार से तो नहीं। जैसे हमारी धरती के पार बहुत दूर तक एक अनंत ब्रह्मांड है, उसी तरह हमारे मन के भीतर भी उसी तरह का अनंत ब्रह्मांड है। यह कितना कमाल का संयोग है कि मनुष्य या जीवधारियों की कोशिकाएं लगभग उसी तरह से रचित और विकसित हैं जैसे ब्रह्मांडीय संरचना।

लेखक का मन्तव्य है कि अध्यात्म और विज्ञान के पार एक जड़ चीज़ मौजूद है और वह है मनुष्य का बनाया हुआ धर्म। धर्म वे नियम हैं जो प्रकृति और परिवेश के हिसाब से बदलते नहीं, बल्कि वे अपने हिसाब से प्रकृति और परिवेश को अनुकूलित करने की फिराक में लगे रहते हैं। ब्रह्मांड नित्यप्रति फैल रहा है, परिवर्तित हो रहा है। हमारा शरीर, इसके अंदर की कोशिकाएं भी नित्यप्रति बदल रही हैं। हम हर अगले क्षण वही नहीं हैं जो पिछले क्षण थे। यहाँ तक कि निर्जीव पदार्थों में भी निरंतर परिवर्तन घटित होता रहता है। लोहे में जंग लगता है, पत्थर भीतर से विघटित होता रहता है। एक धर्म है जो कभी अपना पुनरावलोकन नहीं करना चाहता। वह बदलता है भी तो सिर्फ अपने फायदे को ध्यान में रखकर। इस धर्म की वजह से ही मनुष्यों की मोहक दुनिया एक अभिशाप बनकर रह गयी है। वरना प्रकृति से मिला इतना विकसित मस्तिष्क, संसार में मौजूद इतने पदार्थ और ऊर्जा आपसी सहयोग से इस धरती को नर्क की जगह स्वर्ग भी बना सकते थे। धर्म मनुष्य के अहंकार का मूल है। धर्म जड़ता है और जड़ता अहंकार।

उपन्यास की सबसे बड़ी सीमा है उसकी भाषा। उपन्यास की भाषा थोड़ी कच्ची है। लेखन एक कला है और हर कला अपनी एक उम्र मांगती है। पुरस्कार और प्रसंशा कला की प्राथमिक घातक स्थितियाँ हैं। कहानी का विषय क्षेत्र और कहानी अद्भुत है, उसका विन्यास मोहक है, तारतम्यता कमाल की है। एक कहन शैली और भाषा इस उपन्यास को बहुत बढ़िया बनने से रोक देती है। प्रेम के दृश्य ठहर कर नहीं रचे गए हैं। निष्कर्ष तक पहुँचने या संभवतया पुस्तक समाप्त करने की जल्दबाज़ी इसे कुछ सीमाओं में कैद कर देती है । जहां पर हिन्दी के सुंदर शब्द प्रयुक्त किए जा सकते थे, वहाँ जानबूझ कर अंग्रेज़ी के चालू शब्द खटकते हैं। दूसरी सीमा है लेखक कि अनायास उपस्थिति। एक अवधारणा है कि किसी कृति को उतना ही अच्छा माना जाता है, जितना लेखक उसमें अनुपस्थित रहता है। कहानी की भूमिका में लेखक का होना नहीं अखरता, क्योंकि यह किताब ही मैं शैली में रची गयी है, लेकिन पूरी किताब के हर दृश्य में उसका मौजूद होना थोड़ा मज़ा किरकिरा करता है। एक अच्छा लेखक अपनी बात भी उसी तरह प्रस्तुत करता है जैसे इसे कोई और कह रहा हो।

अंततः उपन्यास, अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद बहुत अच्छा है। खासकर बच्चों और किशोरों के लिए यह बहुत रोचक, ज्ञानवर्धक और उनकी कल्पनाओं को विस्तार देने वाला है। इस उपन्यास की खास बात यह है कि यह आपको आपकी कल्पनाओं से परे एक दूसरी दुनिया की सैर पर ले जाती है। भारत में, मेरी जानकारी में फिक्शन पुस्तकों का अभाव है। यहाँ का सामान्य जनमानस अपनी शारीरिक और तुच्छ मनोवैज्ञानिक जरूरतों से बाहर ही नहीं निकल सका है, इसलिए एक तो इन विषय वस्तु पर किताबें कम लिखी जाती हैं, दूसरे जो लिखी भी जाती हैं, उसका यथोचित स्वागत ही नहीं होता। पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा हमारे यहाँ वैसे भी हमारी प्राथमिकताओं के सबसे निचले पायदान पर आती है। आज भी हम देखें तो मेडिकल स्टोर, कपड़ों, मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकाने हमारे आस पास कुकुरमुत्तों की तरह उग आई हैं। ये दुकाने हमारी दहलीज़ के अंदर तक आ चुकी हैं, लेकिन छोटे से लेकर बड़े शहरों तक में किताबों की नयी दुकाने तुलनात्मक रूप से बहुत कम खुली हैं। बल्कि बहुत सी दुकाने बंद हुई हैं। शहरों के प्रमुख चौराहों और भीड़ भाड़ वाले इलाकों में भी किताबों की दुकाने उसी तरह से परित्यक्त अवस्था में ग्राहकों की बाट जोहती हैं जैसे पुराने किस्म की परचून की दुकाने। गांवों और कस्बों में स्टेशनरी की दुकाने मिल जाएँ वही बहुत है। पुस्तक मेले, जो अभावों के विशाल समुद्र में समृद्धि के जगमगाते द्वीपों की तरह यदा-कदा दिख जाते थे, अब वे भी महामारियों की भेंट चढ़ गए हैं। अपने आलीशान घरों में लोग महंगी टीवी, एंटिक वस्तुओं के भंडार, इक्वेरियम सहित सारी चीज़ें बड़े शौक से रखते हैं, बस एक बुकशेल्फ़ को छोड़ कर। सभ्यता की चकाचौंध में घर की कई अलमारियों बीच किताबों की आलमारी कब ग़ायब हो गयी, पता ही नहीं चला। कुल मिलाकर अच्छी किताबें पढ़ने के शौकीनों के लिए ऑनलाइन बाज़ार एकमात्र अच्छा विकल्प है।

बहरहाल कमियाँ ठीक उसी तरह हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था का अभिन्न अंग हैं जैसे दुख हमारे मानसिक धरातल का। इधर पिछले दशक में नयी वाली हिन्दी का जो एक तूफान खड़ा हुआ है, उसमें हिन्दी के पारंपरिक अनुशासन से इतर खूब ढेर सारे लेखकों और उनकी अलग किस्म की विषय वस्तुओं ने हिन्दी पाठकों को विराट रूप से समृद्ध किया है। यह किताब इसी नए-नवेलेपन का प्रतीक है, एक उम्मीद की किरण है। अपने बहुत भीतर और अपने बहुत बाहर तक की दुनिया को जानने समझने वालों के लिए एक प्रस्थान बिन्दु का काम करती इस पुस्तक और इसके लेखक को दिल से बधाई।

(जगदीश सौरभ)

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