बनाने वालों ने क्या-क्या बना दिया मुझको उसे हिन्दू तो मुसलमाँ बना दिया मुझको जिधर भी जाता हूँ अँधेरा नज़र आता है मुसाफिरों ने क्या रस्ता दिखा दिया मुझको मैंने बचपन में जवानी औ बुढ़ापा देखा ज़िन्दगी तूने तमाशा बना दिया मुझको वो सख्श टूट चुका है बिखरने वाला है निराश आँखों ने सबकुछ बता दिया मुझको मेरी इंसानियत बदरंग न हो जाए कहीं इसी कोशिश ने ही शीशा बना दिया मुझको मैं चंद होंठों को मुस्कान देके लौटा हूँ ख़ुदी ने मेरी मसीहा बना दिया मुझको
मेरे सवाल मुकम्मल जवाब मांगेंगे ये तुझसे मेरी वफ़ा का हिसाब मांगेंगे वो दौर बीत गया जब कि माँगते थे किताब हमारे बच्चे अब हमसे शराब मांगेंगे ये क्या हुआ भभक के बुझ गए दिए की तरह इसी उम्मीद पे कल आफताब मांगेंगे ? करेंगे चर्चा कुपोषण की ताज़ होटल में मीटिंग से उठ के फिर शाही क़बाब मांगेंगे
तुम्हारी याद कि जैसे गहरी रात के सन्नाटे में घड़ी की टिक-टिक मैं सब कुछ बंद कर देता हूँ खिड़की.. दरवाजे.. पंखा.. पानी का नल.. गली से झाँकती हुई रोशनी.. लेकिन घड़ी नहीं , क्योंकि तुमने ही तो बताया था एक दिन घड़ी बंद करने से वक्त थोड़े न ठहरता है !
मैं जब भी कविता लिखता हूँ , तो सोचता हूँ कि कहाँ बनती है ये कलम , कौन भरता है इनमें स्याही क्या वह भी कवितायें लिखता होगा ? कौन बनाता है कागज़ किस फैक्ट्री में बनता है ये कठोर लेटर पैड जिसपर कोमल , मृदु , नरम फ़ाहे जैसी कविताएँ मखमली नींद सोती हैं किसने गढ़ी वो मेज़ , जिस पर मैं कुहनियाँ टेके शब्दों से अठखेलियाँ करता हूँ किसने बनायी ये कुर्सी , चारपाई , चादर , तकिया , रेशमी बिस्तर ताकि लिखते समय शब्द करीने से , धीरे-धीरे तराशे जाएँ आहिस्…
सफ़र सफ़र की तरह हो तो बहुत अच्छा है तू हमसफ़र की तरह हो तो बहुत अच्छा है ज़िन्दगी काश ! परिंदों की तरह हो जाती ये हाथ पर की तरह हों तो बहुत अच्छा है मैं तो ताउम्र जियूँ सिर्फ इबादत के लिए तू भी रहबर की तरह हो तो बहुत अच्छा है तड़पने चीखने रोने की भी फुरसत न मिले ज़हर ज़हर की तरह हो तो बहुत अच्छा है जकड़ के भींच के सीने से लगा लूँ तुझको दोस्त खंजर की तरह हो तो बहुत अच्छा है बात फ़ूलों की तरह रेशमी झूलों की तरह आँख नश्तर की तरह हो तो बहुत अच्छा है …
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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