ज़िंदा रहना , और जी भर जी लेना , वैसा ही है जैसे छोटे कदमों से लांघना पहाड़ , जैसे उखड़ती साँसों से सूँघना दुनिया को भरपूर जैसे छूट पाना भूगोल की कसावट और संस्कृति की जकड़न से। जैसे लहू बनकर रक्तशिराओं में दौड़ते इतिहास को बाहर का रास्ता दिखा सकना जी भर जी लेना जैसे ख़ुद के भीतर झाँकना और दफ्न होने से बच जाना जैसे देख पाना धरती के उस पार। जैसे गले तक धंसे दलदल से निकलने की छटपटाहट जैसे छुप सकना हज़ार जोड़ी आँखों की बेशर्म निगरानी से जैसे दो नन्हे हाथों का भिड़ना हज़ार दुखों से…
कोई रिश्ता हो कुछ भी हो हमेशा याद रखना है जिसे अपना बनाना है उसे आज़ाद रखना है मुहब्बत में वफ़ा और बेवफाई कुछ नहीं होती तेरा हिस्सा है जितना बस वही आबाद रखना है क़यामत तक का वादा, कम ज़ियादा और तकाजा क्या तू मुझको याद है उतना कि जितना याद रखना है अभी बस तुम हो मैं हूँ इश्क से लबरेज़ दो दिल हैं हमारे बाद जो होगा हमारे बाद रखना है
एक लड़की जब कार चलाती है , सरपट भागते पहियों के साथ घूमती हैं सभ्यताएं सड़क के दोनों ओर जमा हो रहे बारिश के पानी से धुल जाता है संस्कृति का थोड़ा सा कीचड़ एक लड़की जब कार चलाती है , तो उसकी हवा से कुछ घूँघट उड़ते हैं , कुछ पगड़ियाँ उछलती हैं , मूंछों का नुकीलापन थोड़ा तरल होता है , मेड़ों की तरह माथे पर उग आई सिलवटें, थोड़ी सपाट हो जाती हैं एक लड़की जब कार चलाती है तो , चहकते हैं दुधमुँहे सपने. अंगड़ाई लेते नन्हे हौसले खुरदुरी सड़क पर गुजर गए उस निशान और धुएं की गंध का दूर तक पीछा करते…
कहने को बहुत कुछ है सुनाने को बहुत कुछ पाने को कुछ नहीं है गँवाने को बहुत कुछ ख़ुद के लिए दो वक्त की फुरसत तो नहीं है औरों पे है इलज़ाम लगाने को बहुत कुछ जो कह दिया उन्होंने वही आख़िरी सच था अब और क्या बचा है बताने को बहुत कुछ तक़रीर तो ऐसी कि कलेजा निकाल दे पर ज़हनियत है नोचने-खाने को बहुत कुछ वैसे तो क़यामत का सफ़र दूर नहीं पर अब भी बचा है बचने-बचाने को बहुत कुछ
अलहदा दिखती है जिस राहगुजर से देखा मैंने दुनिया को किसी और नज़र से देखा उसने मुझसे मेरी गिरहों की चाभियाँ ले लीं फिर मुझे खोलकर जो चाहा , जिधर से देखा मसअला यूँ तो शराफत से निपट सकता था मैं जहां पर था , कहाँ तुमने उधर से देखा मैंने मंज़िल से तो सीखा है ठहरने का सबक मैंने बेचैन निगाहों को सफर से देखा
अन्तर्मन यूँ टूट रहा है बाबुल न इ हर छूट रहा है बसी बसाई सुन्दर नगरी जैसे कोई लूट रहा है बाहर-बाहर सबकुछ सच है अन्दर-अन्दर झूठ रहा है यादों का नश्तर दिल चीरे नासूरों सा फूट रहा है
अपनी कसी हुई दुनिया में उलझे लोगों के पास बाहर झाँकने के झरोखे कम होते हैं। विज्ञान और तकनीकी ने मनुष्य से जो एक वादा किया था कि वह मशीने बनाएगा और इन्सान को फुर्सत होती जाएगी। अबतक जितने मशीने बनी , इस हिसाब से आदमी को फुरसत में हो जाना चाहिए था। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। आदमी व्यस्त से व्यस्ततम होता गया। सोचने-समझने की जगहें लगातार सिकुड़ती गयीं। आजकल , अगर मज़ाक में कहें , तो विद्वता की डिग्रियाँ भी फेसबुक और वाट्सएप से बाँटी जा रही हैं। हालाँकि यह मजाक नहीं है , क्योंकि अंग्रेजी की एक मशहूर कहावत है- ‘जोक इज़ अ सीरियस बिजनेस।’ मुझे व्यक…
बूढा-बूढ़ी तीर्थयात्रा से लौटे थे। घर पहुँचते ही तय हो गया कि पूरे इलाके को भोज खिलाएंगे। फिर क्या था ! तैयारियां शुरू हुई और वह दिन करीब आ गया। चौबीस घंटे के अखण्ड हरिकीर्तन के उपरांत प्रसाद बंटे। लजीज व्यंज्यन तैयार किये गए , लोगों ने जम के लुत्फ़ उठाया। पेट सहलाते हुए घर की तरफ रवाना होने ही वाले थे , कि पता चला नाच भी है। मशहूर नौटंकी मंडली आई थी। कुछ देर बाद हारमोनियम के साथ कुड़कुड़िया नगाड़े की जोरदार ध्वनि से इलाका गूँज उठा। गुलाबी जाड़े के उस मौसम में लोग बड़ी बेसब्री से उन लौंडों की लचकती कमर और बलखाती अदाओं का इंतज़ार करने लगे , जो मंच…
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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