कैसे कहते हो कहो फिर मज़ा नहीं आया
जो न होना था हुआ फिर मज़ा नहीं आया
कितनी हसरत से सरहदों पे नई जंग छिड़ी
फिर भी सौ दो सौ कटे सर मज़ा नहीं आया
इतनी मुद्दत से सफ़र में थे क्या यहीं के लिए
राह से बोला मुसाफिर मज़ा नहीं आया
उसने मस्ज़िद तो कई साल हुए तोड़ दिया
क्या पता कब बने मंदिर मज़ा नहीं आया
तुमसे फिर-फिर से लड़ेंगे हम मसावात की जंग
अबकी अपने ही थे मुखबिर मज़ा नहीं आया
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