मैंने सुना,
अलगनी पर बैठी टिटिहरी से तुम्हारी आवाज़
नंगी चारपाई से उठकर, पीछे मुड़कर
मैंने देखा
मेरी पीठ पर उग आये तुम्हारी हथेलियों के रक्तीले चिन्ह
मैंने बनाई
दोपहर की धूप के छिटपुट बादलों से तुम्हारी आकृतियाँ
जुते हुये ऊबड़-खाबड़ सफेद खेतों में
मैंने जाना
महुवे के पत्तों पर तुम्हारा ही नाम सहला रही है
गर्मी की लू
और
मैंने महसूस की
होंठ और जीभ से अन्दर की तरफ यात्रा करती
एक चटकती, रेतीली प्यास
फिर
मैंने तुम्हें पुकारा
और यह हुआ
अभी, हाँ, बिलकुल
अभी
टिटिहरी उड़ गयी थी
उन आकृतियों को समेटते हुए
साथ ले गयी लू की तपिश
पीठ और खेत दोनों हो गए समतल
बादलों में भर गया ढेर सारा पानी
चारपाई खुद-ब-खुद चली आई ओसारे में
फिर मैंने छुआ
मड़ई की ओरी से टपकते हुए
तुम्हें...
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