तूं पत्थर तो नहीं है फिर पिघलता क्यों नहीं मुझसे


    तूं पत्थर तो नहीं है फिर पिघलता क्यों नहीं मुझसे

    यहीं दिल्ली में रहता है तो मिलता क्यों नहीं मुझसे

 

    फकीरों की तरह अपनी ही धुन में मस्त रहता है

    अज़ब इन्सान है आखिर ये जलता क्यों नहीं मुझसे

 

    ज़माने की मसीहाई थमा के मत जा मुझको सुन

    मैं हैराँ हूँ कि मैं ही खुद सम्हलता क्यों नहीं मुझसे

 

    मेरी ख्वाहिश के तहखानों में लाखों रंग बिखरे हैं

    तेरी सूरत में फिर भी कोई ढलता क्यों नहीं मुझसे

 

    मेरा दुश्मन मेरे ज़ेहन में बसता भी है हँसता भी

    हजारों कोशिशें कर लीं निकलता क्यों नहीं मुझसे



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