मैं जब भी कविता लिखता हूँ, तो सोचता हूँ कि
कहाँ बनती है ये कलम,
कौन भरता है इनमें स्याही
क्या वह भी कवितायें लिखता होगा ?
कौन बनाता है कागज़
किस फैक्ट्री में बनता है ये कठोर लेटर पैड
जिसपर कोमल, मृदु, नरम फ़ाहे जैसी कविताएँ
मखमली नींद सोती हैं
किसने गढ़ी वो मेज़, जिस पर
मैं कुहनियाँ टेके शब्दों से अठखेलियाँ करता हूँ
किसने बनायी ये कुर्सी, चारपाई, चादर, तकिया, रेशमी बिस्तर
ताकि लिखते समय शब्द करीने से, धीरे-धीरे तराशे जाएँ
आहिस्ता से, कहीं घट-बढ़ न
हो जाये
किसने बाहरी धूल, धूप, तूफ़ान, गंदगी और दुर्गन्ध से
मुझे बचाने के लिए मेरे इर्द-गिर्द टांग दी छत और दीवारें
ताकि कविता मटमैली न हो जाए
किसने बनाया वो पंखा, जिसकी हवाएँ
मेरे बालों को सहलाती हुई
मुझे कवि होने के रोमाँच से भर देती हैं
सबसे बढ़कर, किसने जोते
खेत,
बोये, काटे, छाँटे, सुखाये, पीसे, पकाए अनाज
ताकि मेरे जिस्म को गर्मी मिल सके
पैदा हो आँच, जिसमे पक सके
सोंधीं कविताएँ
अपनी भूख, लाचारी, मजबूरी को पिघलाकर
ढाले मेरे लिए रंग-बिरंगे शब्द
फिर मैं सोचता हूँ, हिसाब लगाता
हूँ कि
पकी-पकाई तैयार कविता में उसका हिस्सा कितना है !
0 Comments