पिता की मौत


1- सुबह का सपना

जिस वक्त मैं अपनी पूरी ताकत से भागता हुआ स्ट्रेचर के पास पहुँचापिता दुनिया से जा चुके थे. उनकी आँखे और मुँह खुले हुए थे. आखिरी वक्त में उन्होंने पेशाब कर दिया था जिससे उनपर डाली गयी चादर भीग गयी थी.

मैं रोया नहींरोने की कोई वजह भी नहीं थी. लगातार तीन दिन और रात से उन्हें पल-पल मरते देख मेरे अंदर का एक कोना पहले ही मर चुका था. उलटे मुझे एक अजीब तरह का सुकून मिलामैंने उनके चेहरे को छूते हुएउनकी आँखों को बंद किया और अनायास ही मेरे अन्दर कोई बुदबुदाया “ओह पिता ! अब तुम आज़ाद होतुम्हें तकलीफ से निजात मिल गयीतुम्हे दर्द से आराम मिल गयाइसीलिए तो तुमने तड़पना बंद कर दिया.

बड़ा भाई सुबककर रो रहा थाउसने अपनी दोनो हथेलियाँ अपने मुँह पर कसकर दबा दी थी. वह ज़ोर-ज़ोर से नहीं रो सकता था क्योंकि पूरी रात जागने के बाद स्ट्रेचर के सहारे आँखें बंद करके बैठी हुई माँ जाग जाएगी. शायद वह सुबह का सपना देख रही हो कि उसके पति ठीक हो गए हैं और हम सब सही सलामत घर लौट गए हैंउसने सुना था किसी सेकि सुबह के सपने सच होते हैं. उसके वो पल बहुत कीमती थे. क्यों न माँ को कुछ देर यूँ हीं पड़े रहने दिया जाय. क्योंकि अगर वह जाग जाएगी तोउसे पता चल जायेगा कि उसने क्या खो दिया है.

 

2- रेफर

प्राइवेट अस्पताल वालों ने जवाब दे दिया था. रात के साढ़े ग्यारह बजेजब हालात उनके हाथों से पूरी तरह फिसल चुके थे. अस्पताल वालों का जवाब देना एक ख़ास किस्म की घटना होती हैयह एक तरह का अल्टीमेटम होता है कि आपके हाथ से कोई अनमोल चीज़ छूटने वाली है.

उस वक्त मैं अस्पताल के बाहर था. तकलीफ इस बात की थी कि पिता को लगातार होने वाले दर्द में मैं साझीदार नहीं बन सकता था और उसे सहन करना भी मेरे वश में नहीं था. इसलिए मैं अस्पताल के बाहर होने वाले शोर-शराबे में अपने आप को गुम कर देना चाहता था. मैं भागकर लिफ्ट के पास पहुँचा जहाँ से स्ट्रेचर पर पिता का बीमारअशक्त और पसीने से लथपथ शरीर बाहर निकाला जा रहा था. उनका ब्लड प्रेशर बहुत नीचे चला गया था. उन्हें जल्दी-जल्दी कार में डालकर दूसरे अस्पताल में ले जाया जाने लगा. मैंने काँपते हाथों से बचा हुआ सारा सामान बेतरतीब तरीके से एक बड़े बैग में समेटकर पीठ पर डाला और मोटरसाइकिल से उस बड़े अस्पताल की तरफ भागा.

उस अस्पताल से दूसरे अस्पताल का कुल रास्ता पैंतीस से चालीस मिनट का था. लगभग आधे घंटे का वह रास्ता मेरे जीवन का सबसे कठिनलम्बा और तकलीफदेह रास्ता था. रास्ते में हलकी बारिश हो रही थी और मेरे अंदर एक समुद्र उमड़ रहा था. मैंने उस समुद्र को बाहर आने से रोक दिया था क्योंकि किसी भी तरह की कमज़ोरी मुझे उस नाज़ुक वक्त में बहुत ज्यादा कमजोर बना देती. मैं रास्ते भर यही सोच रहा था कि काश वे एक बार फिर से उठकर खड़े हो जातेमुझे देखकर मुस्कुरा देते और उस एक वक्त में मैं कई सदियाँ जी लेता.

सुबह तक मैंने अपने पिता को खो दिया और वह सदियाँ जीने का सपना मैंने उनकी खुली हुई आँखों में डालकर हमेशा के लिए ढँक दिया.

 

3कुत्ते की मौत

वह शायद अकेला था. शायद अपने पिता की इकलौती औलाद. वह चाहे इकलौता न भी होलेकिन उस वक्त वह अपने पिता के साथ अकेला था. उसके पिता की तबियत बहुत खराब थी. मेरे पिता के सर से लगभग सटा हुआ उस बूढ़े व्यक्ति का स्ट्रेचरजिसकी साँसें बहुत धीमी चल रही थीं. मेरा उसपर तब ध्यान गया जब डॉक्टर ने आकर पुकारा-हाँ भईरामजनम कौन है ? और उसके साथ कौन है ?”

पच्चीस-छब्बीस साल के ग्रामीण वेशभूषा वाले युवक ने निश्चेष्ट भाव से अपना हाथ ऊपर कर दिया.

अच्छा तुम हो ? अकेले ? और कोई नहीं है ? अरे यार इमरजेंसी में अकेले ही लेके आये हो ?”

थोड़ी देर के हलके फुल्के चेक-अप के बाद डॉक्टर ने कहा- “यार ! इनको लेकर घर जाओ. अब इनके बचने की कोई उम्मीद नहीं है.

लेकिन साहब !

देखो बेटा ऐसा हैतुम्हारी तसल्ली के लिए हैं पर्चा लिख देंगेहज़ार-पंद्रह सौ की दवाई ले आओगे. होने वाला कुछ है नहीं. एक तो अकेले आये भी हो. कोई फायदा नहीं है. बिलकुल नहीं.

कोई बात नहीं साहब मैं अकेले ही देख लूँगा. आप थोड़ा देख लीजिये नदादा मर जायेंगे.” और वह फूट-फूट कर रोने लगा. डॉक्टर ने दो मिनट हाथ पैर की नब्ज़ देखी और अनमने भाव से दूसरी तरफ चला गया.

उस बूढ़े आदमी की जीभ निकल आई थी. उसके होठों के किनारे से निकलते उसकी खिचड़ी दाढ़ी को छूते हुए लार टपक रही थी. वह मर रहा था. बिलकुल उसी तरह जैसे मैंने अपने गाँव में कुत्तों को मरते हुए देखा था.

सुबह जब हम अपने पिता की लाश को लेकर कोरिडोर से बाहर निकल रहे थेवह लड़का अपने पिता के शव को स्ट्रेचर पर लिटायेबाहर की तरफ बैठा हुआ था. दो अगरबत्तियां उस बूढ़े के पैरों के पास सुलग रही थीं. मैं सोच रहा था उसने अगरबत्ती कब लाइ होगी ? शायद उसने घर से साथ ही लायी हो ! क्योंकि उसके साथ कोई नहीं था. वह अब भी अकेला था.

 

4वह सूखा आदमी

उसे मैंने कभी रोते हुए नहीं देखा. वह मेरा पड़ोसी था. बहुत सारे सुख-दुःख के पल मैंने उसके साथ बिताये हैं. उसे हैरानपरेशान होतेहँसते-गातेठिठोली करते और खींसे निपोरते कई बार देखा है लेकिन रोते हुए कभी नहीं. यहाँ तक कि शराब के नशे में भी नहीं. वह अंदर तक एक सूखा आदमी हैउसके भीतर बहुत लम्बी सुरंग है जिसकी थाह पाना मुश्किल है. वह मुझसे खुलता हैकभी बहुत कम तो कभी बहुत ज्यादालेकिन रोता नहीं. वह मुझसे अक्सर पूछता है कि अगली बार कब आना होगा. मेरे आने की खबर पर वो खुश होता हैवो मुझे कई बार फोन करता हैतक़रीबन रोजदो चार बार तब भी वह फोन कर लेता है जब मैं ट्रेन से उतर कर गाँव के नजदीक तक आ गया होता हूँऔर वह साइकिल या मोटरसाइकिल लेकर मुझे लेने आता है. उसे इस बात में बहुत दिलचस्पी रहती है कि मैं कहाँ तक पहुँचा. बहुत सतही और बहुत गहरे अर्थों में भी वह यह जानने की कोशिश करता है कि मैं कहाँ तक पहुँचा.

उसने अपना जीवन बहुत अभावों में जिया है. उसकी दिनचर्या बहुत यंत्रवत है. काम भी वह मशीनों की तरह करता है. उसका दिन बहुत ही नीरस किस्म के कामों में गुजरता है. वह बिलकुल भी रचनात्मक इंसान नहीं है. ताज्जुब की बात यह है कि उसे पता है रचनात्मक होना किसे कहते हैं. यह जानकार भी कि वह कुछ ख़ास नहीं कर रहा हैउसकी जिंदगी बस बीत रही हैलगभग बर्बाद हो रही हैफिर भी वह जीता रहता है. उसे मरने का ख़याल कभी नहीं आया. मुझे नहीं पता वह क्यों जी रहा है जबकि जिंदगी के मायनों पर वह मुझसे कई बार अच्छी-खासी बहसें करता है. उसे पता है जिंदगी बहुत छोटी हैऔर छोटी होने के साथ बेशकीमती भी.

वह कई बार मुझसे राजनीतिसंस्कृतिइतिहाससिनेमा और समाज के बारे में बड़े दिलचस्प सवाल करता है. मेरे जवाबों से कभी वह बहुत संतुष्ट होता है तो कभी बहुत खीझ जाता है. उसकी उम्र बहुत ज्यादा नहीं हैवह मुझसे तकरीबन चार या पाँच साल छोटा हैलेकिन उसकी आदतें बुजुर्गों की तरह लगती हैं. मोहल्ले के बाहर मिलने वाले हर व्यक्ति से वह नमस्कार करता है. उसके इस बुज़ुर्गपने की वजह से बच्चे उसे बहुत पसंद नहीं करते. अपनी कुंठाओं के बोझ तले दबा वह बच्चों से झगड़ पड़ता हैऔर कभी-कभी उन्हें चिढ़ाकर विजयी भाव से ठठाकर हँसता है. उसमें बस एक कमी है कि वह रोता नहीं है.

लेकिन इस बार वह टूट गया था. मेरे पिता के मरने की खबर सुनकर वह भीतर तक टूट गया था. वह मेरे पिता के बहुत करीब थामुझसे अक्सर उनकी तारीफें करता और कभी-कभी वह उनकी तरह बनने की बातें करता था. उनकी मौत की खबर सुनने के बाद वह जड़ हो गया था. बावजूद इसके वह आने वालों को सिलसिलेवार तरीके से सारा घटनाक्रम बता रहा था. वह कुछ लोगों को फोन पर रास्ता बता रहा था. वह लोगों को चौराहे पर लेने और छोड़ने जा रहा था. वह कफ़न खरीद रहा थाअर्थी के लिए बाँस काट रहा थालोगों को पानी पिला रहा थासाथ ही बेसब्री से उस एम्बुलेंस का इंतज़ार कर रहा था जिसमें मैं अपने पिता का शव लेकर आ रहा था. एम्बुलेंस पहुंचीपिता के शव को उतारा गयामैंने ड्राइवर को बकाया पैसे चुकाए. तबतक वह कहीं नज़र नहीं आ रहा था. अचानक उसने मुझे पीछे से आवाज़ दी. मैं मुड़कर देखता इसके पहले उसकी आवाज़ पिघल चुकी थीसाथ ही वह भी. उसने मुझे बहुत ज़ोर से सीने से चिपका लिया और दहाड़ें मार कर रोने लगा. वह कभी नहीं रोया थाउसे रोने की दुनियावी तहज़ीब की कोई जानकारी नहीं थी. उसके गले से किसी कटते हुए जानवर जैसी घों-घों की आवाज आ रही थी. उस सूखे आदमी ने मेरे कंधे को बिलकुल गीला कर दिया था.

 

5- मेरा कुछ सामान

मैं उन सामानों के ढेर को बहुत देर से उलट-पुलट रहा था. मुझे पता था उनमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जो बोल पड़ेगा. ये तो सुना था कि मरने वाले के साथ उसके परिजनदोस्त-यार और नाते-रिश्तेदार भी थोड़ा सा मर जाते हैंलेकिन मरे हुए आदमी की चीजें भी उसी के साथ मर जाती हैं इसका अहसास मुझे उस वक्त हो रहा था जब मैं अपने पिता के बचे हुए जरुरी सामानों को इकठ्ठा कर रहा था. मैं उनके उस कमरे पर गया था जहाँ वे किराए पर रहा करते थे. एक दफा दिल्ली से घर आते हुए मैं इलाहाबाद में पिता के उस कमरे पर आया था. उनकी मौजूदगी का अहसास उस चहरदिवारी के अंदर बसे हर एक चीज़ में थी. उनके साथ रहने वाला सहकर्मी सामानों की फेहरिस्त में उलझा हुआ था. उसे डर था कहीं कुछ छूट न जायेऔर मुझसे जो चीज़ छूट गयी थीउसके बाद मुझे किसी चीज़ का डर नहीं था.

पिता ने कभी खाली रहना नहीं सीखा था. शहर में रहने के बावजूद अपने इर्द-गिर्द एक गाँव बसा रखा था. उस थोड़ी सी जगह में भी उन्होंने खेतों जैसी छोटी-छोटी क्यारियाँ बना रखीं थींऔर उसमें लहलहाते हुए भिंडी और बैंगन के पौधे इस बात से पूरी तरह अनजान थे कि उन्हें रोपने वाला अब फिर कभी नहीं आएगा. फिर कोई सुबह ऐसी नहीं आएगी जब सुबह की नर्म धूप में उन हरे पत्तों को कोई हथेलियाँ इतने प्यार से सहलायेंगी. घर से बनवाकर लायी गयी खुरपियों पर श्रम से चुहचुहा आई पसीने की बूँदें फिर से नहीं ढलकेंगी. उन पर लगी हुई हलकी जंग को गाहे-बगाहे फिर से कोई निगाहें नहीं कोसेंगी.

नल के पास बने चबूतरे पर एड़ियाँ रगड़ कर नहाते हुए पिता का अक्स उभर आया. उस नल से टपकती हुई बूँदेंजिस भी चीज़ की बनी थींपानी तो कत्तई नहीं थीं. उदासी अपनी पूरी तरलता में पिघल कर बह रही थी. मैंने बिखरे हुए सामानों की एक गठरी बनाई और वापस उस चहरदीवारी की तरफ फिर से मुड़ कर नहीं देखा. अगर मुड़कर देखता तो दहलीज़ पर मुस्कुराते हुए पिता अलविदा कहते दिख जाते. मुझमें इस अलविदा को स्वीकार करने का साहस नहीं था शायद.

जिस रास्ते पिता आते थेउसी रास्ते इस बार सिर्फ उनका सामान आया था. अँधेरा घिर चुका था. लालटेन की हल्की रोशनी में मैंने एक-एक करके सारा सामान निकलना शुरू किया. कुछ कागज़कुछ फाइलेंकुछ तस्वीरेंकुछ कपड़ेएक जोड़ी जूताचश्माएक शॉल और ढेर सारी यादें. यादों को छोड़कर बाकी सबकुछ निर्जीव था. माँ सारी चीजों को आहिस्ता से सहलाते हुए फफक पड़ी. मैंने उन्हें रोका नहींउन्हें सम्हाला नहीं. सारी निर्जीव चीजें मैंने एक आलमारी में करीने से सजा दीं और दरवाजों को साँस लेने के अधखुला छोड़ दिया. गहराती हुई उस स्याह रात में मैंने पिता की यादों को माँ के पास ही रहने दिया और खुद एक अँधेरी खोह में आगे बढ़ता चला गया.

 

6- मुझे अफ़सोस है

उस नौजवान डॉक्टर ने पिता की नब्ज़ टटोलते हुएआँखों में टार्च जलाते हुए एक मिनट के बाद सिर्फ एक लफ्ज़ बोला- “मुझे अफ़सोस है.” फिर वह चला गया. मैं कोरिडोर में खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा. मेरे बुलाने पर वह भाग कर आया थाएक बनावटी घबराहट चेहरे पर लपेटे हुए. बिलकुल ऐसे जैसे वह मेरे ही लिए बैठा था. जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रहा था. उसने मेरी कांपती हुई आवाज़ और मेरे चेहरे पर लिखी भयानक उदासी को पढ़ लिया था. उसे अच्छी तरह पता चल गया था कि जो होना था वो हो चुका है. और मुझे यह पता चल चुका था कि वह हो चुका है जिसे नहीं होना चाहिए था.

सारी रात जब आँखों में कटी हो तो अस्पताल की सुबहें सूरज की रोशनी से चमकती नहीं हैंबल्कि स्याह अँधेरे की तरह भाँय-भाँय करती बहुत डरावनी सी लगती हैं. पेड़ के पत्ते सारी रात बरसात होने के बावजूद पीले और बीमार से दीखते हैं. हवाएं बासी और दुर्गन्ध लिए हुए होती हैं. रात भर एक-एक करते मरते हुए लोगों को देखते रहना आपको परत-दर-परत छीलता रहता है और सुबह तक कुछ नहीं बचता. मैं भी नहीं बच सका था. मेरे अंदर की एक रूमानी दुनियाँ उस रात की अँधेरी खोह में भटक कर कहीं गुम हो गयी थी. यह सब उस सुबह के होने के पहले का सच था. सुबह होने के बाद का सच कहीं ज्यादा भयावह था.

दरअसल सुबह कभी हुई ही नहीं और न शायद कभी होगी. डॉक्टर चला गयाऔर मुझे बुलाकर एक पर्चा थमा गया. यह वह पर्चा था जिसके जरिये मुझे लोगों कोसरकारी महकमें को और शायद जिसे भी इसका प्रमाण चाहिए होगाउसे यह बताना था कि मेरा कोई अपनाजिसे मैं अपना पिता कहता थाअब इस दुनिया में नहीं हैं. उस पर्चे में मेरे दस्तख़त लिए गएउसमें वो तारीख डाली गयी जिसने पिता को हमेशा के लिए छीन लिया. पिता अब पिता नहीं रहेमहज़ एक कागज़ का टुकड़ा हो चुके थे. यही कागज़ का टुकड़ा अब मेरी जागीर थी. यही इस दुनिया का सच था.

सामने एक गली दिखाई दी जो अस्पताल के बाहर जाती है. मैंने स्ट्रेचर के एक सिरे को पकड़ा और उसे घसीटता हुआ उस गली की तरफ बढ़ने लगा. वह गली दरअसल कहीं भी ख़त्म नहीं होती है.

 

7- बाहर बैठे लोग

पिता को रात के एक बजे इमरजेंसी वार्ड में भर्ती कर लिया गया. बाहर बारिश हो रही थीहम माँ-बेटे कहीं सर छुपाने की जगह ढूँढ रहे थे क्योंकि गार्ड ने हमें अंदर जाने से रोक दिया था. पाँच मिनट के अंदर गार्ड ने हमें तीन बार किसी और जगहफिर किसी और जगह खड़े होने को कहा. बाहर इमरजेंसी केसों के आने का सिलसिला जारी था. हर पाँच या दस मिनट पर सिलसिलेवार तरीके से एक गाड़ी रूकतीस्ट्रेचर लेकर उसे अंदर ले जाया जाता और उसके बदहवास परिजन बाहर शून्य में देखतेकुछ सवालों के हल ढूँढने की कोशिश करते रहते. मेरी तरह के अधिकतर लोगों को उसका कोई माकूल जवाब नहीं मिल पाताऔर वे अलसुबह इमरजेंसी के पिछले दरवाजे से अपने परिजन का मृत शरीर लेकर रोते-बिलखते कहीं वापस चले जाते हैं. यह देश दरअसल इमर्जेंसियों का देश है.

अंदर से मेरा नाम पुकारा गया और दवाओं की एक लम्बी फेहरिस्त मेरे भीगते हाथों में थमा दी गयी. बाहरकहीं अंधेरे में दुबकेरोज जिंदगी और मौत का सौदा करने वाले मेडिकल स्टोर्स के कुछ नौजवानों ने हमारा पर्चा झपट लिया और अपनी-अपनी दूकान पर ले जाने लगे. उनके लिए हर इमरजेंसी केस मनमानी कमाई करने का साधन भर होता है. मरीज के बदहवास परिजन उनके लिए देवदूत की तरह होते हैं और हाथ में लम्बा पर्चा रात की नींद ख़राब करने की कीमत. रात को वे आपको अंदर की ऐसी दुकानों पर लेकर जाते हैं जहाँ अमूमन दिन में भी कोई जाना नहीं चाहता. आपसे थोड़ी सहानुभूति की कीमत वे दवाइयों के साथ हज़ार-पाँच सौ अधिक जोड़ कर लेते हैं.

जब दवाइयाँ लेकर मैं लौटा तो इमरजेंसी वार्ड में घुसने का बहाना मिल गया. मैं इस बदहवास स्थिति में पिता को एक नज़र देख लेना चाहता था. दरअसल मैं यह जानकर राहत महसूस करना चाहता था कि वे अभी भी ठीक हैं. डॉक्टर ने एक-एक करके दवाइयाँ चेक की. उन सारी दवाइयों के दाम पूछे. यह जानकर वह मुस्कुराकर रह गया कि मैं हज़ार रुपये तक ठग लिया गया हूँ. मेरे ठगे जाने पर वह मुस्कुराने की जगह कुछ और भी कर सकता थालेकिन उसने बस मुस्कुरा भर दिया. गहरे दुःख और निराशा के पलों में भी ठगे जाने की तरह मुस्कुराना भी एक व्यवसाय है.

मैं वापस फिर से उन्हीं कतारों में खड़ा हो गया जहाँ सैकड़ों लोग अपने परिजनों को लेकर भय और दुःख से ग्रस्त रोतेसुबकते और एक दूसरे को दिलासा देते हुए खड़े थे. बहुत भयावह जगह थी वह. वह एक समय था जहाँ सब कुछ ठहरा हुआ था. किसी भी पल कुछ भी हो सकता था. वह किसी क्रिकेट मैच के आखिरी ओवर की तरह नहीं थाजहाँ सब हारने या जीतने के बाद थोड़ी देर खुश या निराश होकर अपने काम में लग जाते थे. वहां जिंदगी और मौत का मैच चल रहा था. एक ऐसा मैच जहां आप सिर्फ हारते हैं. या तो ठगे जाते हैं या मारे जाते हैं. जीतने का कोई विकल्प नहीं है.

 

8- भीतर बैठे लोग

इमरजेंसी वार्ड. मेरी ही उम्र का वह हट्टा-कट्टा नौजवान भयंकर दर्द से चीख रहा था. इतना तेज़ कि पूरा अस्पताल बहुत डरावना महसूस होता था. रह-रहकर उसका पूरा बदन ऐंठता. ज्वार भाटे से आते. उसका कोई अपना पास बैठा उसे चुप कराताडाँटता और परेशान होकर चपत भी लगा देता. पता नहीं उसे क्या बीमारी थीऔर यह जानने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी. वहाँ सब परेशान थे. बहुत भीड़ थी लेकिन सब अकेले थे.

मेला सा लगा था. चारों तरफ मौत का तांडव. आते-जातेचीखते-चिल्लाते बदहवास लोग. जैसे किसी भयानक रेल हादसे के बाद की तस्वीरजहां राहत और बचाव दल के पहुँचने में अभी वक्त हो. डॉक्टरों की आमद बहुत कम थी. कुछेक जूनियर डॉक्टर और नर्सें ऐसे टहलते नज़र आतेजैसे सुबह की सैर पर निकले हों. बुलाने पर भी वे अनमने भाव से बगल से गुज़र जाते जैसे उनका कुछ खो गया है और वे बड़ी तन्मयता से ढूंढ रहे हों. सिर्फ एक सीनियर डॉक्टर था जो मनहूस सा चेहरा लिए हर नए आने वाले मरीज़ को देखताजैसे अहसान कर रहा हो. ऐसा लगता कि मरीज़ को ऑक्सीजन मास्क लगा करग्लूकोज़ की कुछ बोतलें लटकाकर उसने दुनिया जीत ली हो. उसके बाद परिजनों को कुछ हिदायतें देकर दुबारा नया मरीज़ न आने तक गायब हो जाता. अजीब सी पत्थर जैसी आँखों वाला आदमी था वह.

बाहर एक नया केस आया. भीषण ऐक्सिडेंट हुआ था. पुलिस की जीप में लेटे तीन में से दो को देखकर कोई भी आसानी से कह सकता था कि वे मर चुके थे. इत्तफाक से दोनों बाप-बेटे थे. बाप का माथा पिचका हुआ था और कपड़े खून से लथपथ थे. तीसराजिसके मरने में अभी थोड़ी देर थीउसके मुँह से खून इस तरह गिर रहा था जैसे चूल्हे पर रखे पतीले से उबलता हुआ पानी गिरता है. स्ट्रेचर जिस भी दिशा में घूमता लोग मुंह पर हाथ रखेचीखते हुए अलग हट कर रास्ता खाली करते जाते.

रात बहुत गहरा आई थी. मरीज़ आते रहतेलाशें जाती रहतीं. एक उदास खामोशी चारों तरफ पसरी हुई थी. मुसाफिरों से भरागहरी रात के स्टेशन सा नज़ाराजहाँ लम्बी दूरी की ट्रेन जरूरत से बहुत ज्यादा लेट हो गयी हो. कुछ बत्तियां जल-जलकर बुझती थीं और बुझ-बुझकर जल जाती थीं. अधिकतर की आँखों में सौ-सौ मन की नींदें तैर रही थीं. सुबह नौ बजेओपीडी खुलने तक के इंतज़ार में लोग स्ट्रेचरों से लगकर ऊँघते रात काट रहे थे. सुबह तक जो बच जायेंगेउनको थोड़ी सी तीमारदारी और नसीब हो जाएगी. हांफते-कराहते लोग बचने की उम्मीद में मौत को मात देने की कोशिश में लगे हुए थे. वह रात बहुत भयानक और लम्बी थी. उखड़ती सांसों को सहेजते हुए हर कोई अपने आप से कहता... बस्सथोड़ी देर और... सुबह होने को है...

रात के तीन बजे हैं. वह नौजवान सुबह के इंतज़ार में अभी थोड़ी देर पहले ही खामोश हुआ था. पता नहीं क्या हुआ थालेकिन अब उसकी चीखें अस्पताल की नीरवता को भंग नहीं कर रही थीं.

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6 Comments

  1. शब्द नहींहैं, दिल भारी सा हो गया,, और शब्द ऐसे की ..sb

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  2. सारा घटनाक्रम जीवंत कर दिया। आपकी लेखनी मुझे वहाँ ले गई जहाँ मैं आपके साथ नहीं था। शुक्रिया।!

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  3. पढ़ कर मुझे अपने माता-पिता की मौत की घटना का मंजर साक्षात नजर आने लगा। मन पुनः दुःखी हो गया ।

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  4. पढ़ कर मुझे अपने माता-पिता की मौत की घटना का मंजर साक्षात नजर आने लगा। मन पुनः दुःखी हो गया ।

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  5. बेहद मार्मिक और भावुक बना देने वाली जीवन की घटना।

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