सोचता हूँ कि मुसलसल लिख दूँ



    आज लिक्खूं या चाहे कल लिख दूँ

    सोचता हूँ कि मुसलसल लिख दूँ

 

    रात भर जागता रहा हूँ मैं

    क्यूँ न ऐसा करूँ ग़ज़ल लिख दूँ

 

    उदास बैठा है इक खानाबदोश

    उसके सपनों में एक महल लिख दूँ

 

    यूँ करूँ जिंदगी के पन्नों पर

    हर कठिन की जगह सरल लिख दूँ

 

    ठूँठ पेड़ों को हरा फल लिख दूँ

    उड़ रही रेत को दलदल लिख दूँ

 

    झील में खून के निशान मिले

    हुक्म आया है मैं कमल लिख दूँ

 

    क्यों न इन रहबरों की बस्ती को

    लखनऊदिल्ली को जंगल लिख दूँ

 

    इमारतों को करके नेस्तानाबूद

    कुदालफावड़ा और हल लिख दूँ

 

Post a Comment

0 Comments