सन 2009-10 की बात है। उस समय तक इन्टरनेट तक हमारी पहुँच बहुत सीमित थी। बीस रुपये प्रति घंटे की दर से इन्टरनेट कैफे में ऑर्कुट पर एकाउंट बनवा कर इन्टरनेशनल हो जाने का अपना सुख था। गूगल और यूट्यूब कानों के लिए परिचित शब्द जैसा लगने लगा था। फेसबुक के बारे में सुना तो हंसी आई थी , और उसके साथ करना क्या है , नहीं पता था। उस वक्त बीएचयू के एक सीनियर दोस्त बड़े शायरों की कुछ सीडियाँ रखे हुये थे। शायरी के प्रति उस दोस्त की दीवानगी मुझे आज भी बहुत गुदगुदा जाती है। उस समय के नामचीन शायरों को सुनकर पता नहीं क्या हो जाता था। एक शाम खबर मिली कि बीएचयू क…
1- सुबह का सपना जिस वक्त मैं अपनी पूरी ताकत से भागता हुआ स्ट्रेचर के पास पहुँचा , पिता दुनिया से जा चुके थे. उनकी आँखे और मुँह खुले हुए थे. आखिरी वक्त में उन्होंने पेशाब कर दिया था जिससे उनपर डाली गयी चादर भीग गयी थी. मैं रोया नहीं , रोने की कोई वजह भी नहीं थी. लगातार तीन दिन और रात से उन्हें पल-पल मरते देख मेरे अंदर का एक कोना पहले ही मर चुका था. उलटे मुझे एक अजीब तरह का सुकून मिला , मैंने उनके चेहरे को छूते हुए , उनकी आँखों को बंद किया और अनायास ही मेरे अन्दर कोई बुदबुदाया “ ओह पिता ! अब तुम आज़ाद हो , तुम्हें तकलीफ से निजात मिल गय…
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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