बूढा-बूढ़ी तीर्थयात्रा से लौटे थे। घर पहुँचते ही तय हो गया कि पूरे इलाके को भोज खिलाएंगे। फिर क्या था ! तैयारियां शुरू हुई और वह दिन करीब आ गया। चौबीस घंटे के अखण्ड हरिकीर्तन के उपरांत प्रसाद बंटे। लजीज व्यंज्यन तैयार किये गए , लोगों ने जम के लुत्फ़ उठाया। पेट सहलाते हुए घर की तरफ रवाना होने ही वाले थे , कि पता चला नाच भी है। मशहूर नौटंकी मंडली आई थी। कुछ देर बाद हारमोनियम के साथ कुड़कुड़िया नगाड़े की जोरदार ध्वनि से इलाका गूँज उठा। गुलाबी जाड़े के उस मौसम में लोग बड़ी बेसब्री से उन लौंडों की लचकती कमर और बलखाती अदाओं का इंतज़ार करने लगे , जो मंच…
नदी किनारे घाट की सबसे निचली सीढियों पर बैठे हुए दोनों बिखरे हुए कंकड़ बीन-बीन कर पानी में फेंकते रहे , लेकिन घंटो तक बोला कोई नहीं. पानी में कंकड़ गिरने के बाद ‘ घुप्प ’ की आवाज़ होती और ख़ामोशी की लय थोड़ी देर के लिए टूट जाती. सूरज डूबने को हो आया. बढ़ी हुई नदी की लहरों सा एक शोर दोनों का अन्दर भी था. कहने को बहुत कुछ था, लेकिन शब्द नहीं थे. युनिवर्सिटी कैम्पस के मेन गेट से दोनों साथ चले थे. सीढियों पर कोई ठीक-ठाक सी जगह देख कर बैठने तक चुपचाप , ख़ामोशी की एक लकीर दोनों के क़दमों के साथ खिंची चली आई थी. कोई बच्चा सीढ़ियों से दौड़ते हुए आया और …
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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