बारिश की तरह अब्र से झर लूँ तो फिर चलूँ शबनम सा ज़मीनों पे बिखर लूँ तो फिर चलूँ गीले लजीज़ लम्हे बहुत बेशकीमती ठहरो ज़रा सा आँख में भर लूँ तो फिर चलूँ हिज़रत में मुसलसल है अंधेरों के बयाबाँ कुछ रोशनी के पंख कुतर लूँ तो फिर चलूँ दरिया से बहक जाने हवाओं से महकने का सहरा से तिश्निगी का हुनर लूँ तो फिर चलूँ दुश्वारियों ने सोख लिया ज़िन्दगी का ताब तुमको गले लगा के निखर लूँ तो फिर चलूँ बस्ती से आ रहा किसी के चीखने का शोर बेबस ही सही फिर भी सिहर लूँ तो …
जीवन क्षणभंगुर है बुढ़िया से बतियाते रामधनी बीच ओसारे पाँव पसारे खैनी खाते रामधनी ऊँगली पर सब जनम-करम के जोड़-घटाते रामधनी ब्याह कराते , कब्र खोदते , तेरही खाते रामधनी पोखरी खेत पतोह अबादी सुलह कराते रामधनी बछरू पगहा तोड़ के भागा रेस लगाते रामधनी बाकी सबै कुसल-मंगल है पान घुलाते रामधनी धनतेरस पे फरसा कीन के हाट से आते रामधनी अबकी बार फसिल अच्छी है जश्न मनाते रामधनी छुट्टा गोरु-गाय बकस दें डीह पुजाते रामधनी …
तूं पत्थर तो नहीं है फिर पिघलता क्यों नहीं मुझसे यहीं दिल्ली में रहता है तो मिलता क्यों नहीं मुझसे फकीरों की तरह अपनी ही धुन में मस्त रहता है अज़ब इन्सान है आखिर ये जलता क्यों नहीं मुझसे ज़माने की मसीहाई थमा के मत जा मुझको सुन मैं हैराँ हूँ कि मैं ही खुद सम्हलता क्यों नहीं मुझसे मेरी ख्वाहिश के तहखानों में लाखों रंग बिखरे हैं तेरी सूरत में फिर भ...
कैसे कहते हो कहो फिर मज़ा नहीं आया जो न होना था हुआ फिर मज़ा नहीं आया कितनी हसरत से सरहदों पे नई जंग छिड़ी फिर भी सौ दो सौ कटे सर मज़ा नहीं आया इतनी मुद्दत से सफ़र में थे क्या यहीं के लिए राह से बोला मुसाफिर मज़ा नहीं आया उसने मस्ज़िद तो कई साल हुए तोड़ दिया क्या पता कब बने मंदिर मज़ा नहीं आया तुमसे फिर-फिर से लड़ेंगे हम मसावात की जंग अबकी अपने ही थे मुखबिर मज़ा नहीं आया
Writer, Assistant Professor, Hindi Department, Central University of Jharkhand, Ranchi
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